Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

अमिट स्मृति

 

अमिट स्मृति

           अपनी ही रफ़्तार में दनदनाती, अंधेरे को चीरती राजधानी एक्सप्रेस मंजिल की ओर बढ़ती जा रही थी। बॉगी में, श्मशान का सन्नाटा था पसरा हुआ। यात्री सभी अपने-अपने बर्थ पर सो रहे थे। मैं निचली बर्थ पर, दिन भर का थकान दूर करने, उपन्यास पढ़ रही थी। बगल के बर्थ पर एक मुस्लिम परिवार अपने स्त्री-बच्चे के साथ सो रहे थे कि सहसा धड़ाम की आवाज हुई, और फ़िर पहले की तरह खामोशी छा गई। मैंने पुस्तक पर से नजर हटाकर जो कुछ देखा, मेरी आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं। एक आठ-नौ महीने का बच्चा, जो बिल्कुल रबर के खिलौने की तरह देखने में था, औंधे-मुँह शांत पड़ा हुआ था। मैंने उसे झटपट गोद में उठाया और चिल्लाना शुरू कर दिया। भाई साहब! किसी का बच्चा ऊपर के बर्थ से गिर गया है; दया करके लाईट जलाइये; देखिये किसका बच्चा है? इस कदर मैं बहुत देर तक चिल्लाती रही, मगर किसी ने जवाब नहीं दिया। लेकिन हाँ, हमारे बगल बाले यात्री, मुझपर चिल्लाते हुए इतना मुझसे जरूर बोले— मैडम ’आप चिल्ला क्यों रही हैं? खुद भी नहीं सोती, किसी को सोने भी नहीं देती; दया कर सो जाइये आप।’ इतना बोलकर वे मेरी तरफ़ पीठ कर सो गये। मैं फ़िर बोली----’भाई साहब! देखिये तो एक बार,हो सहता है,यह आपका ही बच्चा हो। उसने अंधेरे में ही अपने बच्चे को हाथ से टटोलकर देखा। जब उसे अपना बच्चा नहीं मिला, तब धड़ से लाइट जलाई और क्या हुआ, क्या हुआ कह चिल्लाने लगा, पूछने लगा---- ’मेरा बच्चा आपकी गोद में कैसे आ गया? वह तो मेरे सीने से लगकर सो रहा था”। मैंने उनसे शांत होने के लिए कहा, और बोला- ’यह बेहोश है, आपके पास पानी है,तो इसके मुँह पर डालिये। उन्होंने अपना पानी का बोतल निकालकर बच्चे के मुँह पर छींटा मारा। थोड़ी देर में बच्चे ने आँखें खोली,उन्होंने झपटकर बच्चे को मेरी गोद से अपने गोद में ले लिया और पूछा---- इसे क्या हो गया है, यह रोता क्यों नहीं, जब कि यह ऊपर से गिरा है। इसे चोट आई है, तभी एक बुजुर्ग अपने बर्थ पर से उठकर आये और बच्चे की ओर गौर से देखते ही ’अफ़सोस है”, बोलकर जाने लगे। मैंने उन्हें रोकते हुए पूछा---- ’आपने कुछ बताया नहीं’? उन्होंने कहा---- बताने का रहा क्या,जो बताऊँ। बहुत देर हो चुका है, इसकी आँखें खुली हैं, लेकिन यह जा चुका है।’ बूढ़े की बात सुनकर, बच्चे के पिता दहाड़ मारकर रोने लगे। उनके काँप रहे ओठ, और बह रहे आँसू, यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि ’मैं एक हत्यारा पिता हूँ, मुझे फ़ाँसी पर लटका दो’।

          अत्यधिक शोरगुल सुनकर ऊपर के बर्थ पर सो रही बच्चे की माँ की नींद खुल गई। वह नीचे आई और मेरी तरफ़ गुर्राती नजरों से देखती हुई चिल्ला पड़ी, बोली---- अरी वो मैडम! आप मेरे पति-बच्चे के साथ क्यों झगड़ रही हैं? मैंने उसे ऐसा बोलने से मना किया और कहा---- यहाँ कोई झगड़ नहीं रहा, बावजूद उसने मुझे धक्का देते हुए कहा---- चल, हट, बड़ी आई, मुझे समझाने वाली; दो अक्षर पढ़-लिख क्या गई, खुद को प्रोफ़ेसर समझने लगी।

           मैं नहीं चाहती थी कि उसे झट से बता दूँ कि आपका बच्चा ऊपर से गिरकर मर चुका है, क्योंकि मुझे डर था, कहीं बच्चे की मौत के सदमे को वह बर्दास्त नहीं कर सकी, तो क्या होगा? वहाँ का दृश्य देखकर बॉगी के सारे लोग सन्न थे। कोई कुछ भी नहीं बोल पा रहा था; तभी बच्चे के पिता ने, मुझसे रोते हुए कहा—’मैडम! आप औरत नहीं, देवी हो, और मैं एक अपराधी, अपने पुत्र का हत्यारा। मुझे इसकी सजा दो, फ़ांसी पर लटका दो, चिल्लाते हुए वह चलती ट्रेन से कूदने, गेट की तरफ़ भागा’। लोगों ने पकड़ कर उसे बर्थ पर लाकर बिठाया और समझाया---- ’आपके कूद जाने से, यह बच्चा जिंदा नहीं हो जायेगा। बल्कि अपनी पत्नी के बारे में सोचिये, क्यों इतनी विषम घड़ी में भी वह शांत बैठी है। न तो बच्चे को अपनी गोद में लेने माँगती है और न ही रोती है; पत्थर की मूरत हो गई है, हिलती-डुलती नहीं है। तभी बच्चे की माँ एकाएक उठी और खून से तर अपने बच्चे को भयातुर हिरणी की तरह आकर गोद में उठा ली। दूर बैठा, सलीम (पति) इस तरह पत्नी को देख रहा था, जैसे पूछ रहा हो,कि मुझे जिंदा रहना चाहिये या नहीं। पत्नी सलमा, उनके भाव को तारते हुए बोली---- यह संसार किसी न्यायी खुदा का संसार नहीं है, जो चीज जिसे मिलनी चाहिये, उसे नहीं मिलती। इसका उल्टा होता है, हम जंजीरों में जकड़े हुए उसके गुलाम हैं। हम अपनी इच्छा से अपना हाथ-पैर भी हिला नहीं सकते। अगर हम जीने के लिए, उसकी इच्छा के विपरीत कोई राह निकालते हैं, तो उसे कुचल दिया जाता है, मिटा दिया जाता है, जो कि आज हमारे प्रत्यक्ष है। जानते हो, बावजूद इसी को दुनिया इंसाफ़ कहती है। हमने भी अपने बेटे को इसीलिए दुनिया में लाया था कि जिंदगी के ढ़लान पर वह स्तम्भ बनकर हमें सहारा देगा। लेकिन उस बेरहम को मंजूर नहीं था,इसलिए मैं तुमको खतावार नहीं मानती, बल्कि खतावार तो वह है, जिसे हम न्याय का देवता कहते हैं। तुम अपना मन मैला न करो, शायद मेरे तकदीर में पुत्रशोक ही लिखा था, तो खुशी कहाँ से नसीब होगी। जब रो-रोकर ही मरना है, तो मर जायेंगे, लेकिन उसके आगे हम रहम की भीख अब नहीं माँगेंगे। तुमने इतनी अर्ज की दुआ माँगी, पाँचो वक्त नवाज़ पढ़ी, क्या मिला? 

          सलीम, बेटे को याद कर सिसक उठा। पत्नी सलमा ने कहा---- ’तुम रोओ मत, आँसू पोछ लो; तुम्हारे आँसू उस पत्थर दिल को पिघला नहीं सकता। सजल नेत्र से पत्नी की ओर देखते हुए सलीम ने कहा---- ’जानती हो सलमा, मुझे ऐसा महसूस हो रहा है,कि मेरा बेटा, मेरी गोद में आने के लिए हुमक रहा है। ऐसा मोह मेरे मन में कभी नहीं जगा था, जब वह जिंदा था। उसका हँसना और रोना, उसकी तोतली बोली, अब्बा कहकर पुकारा। उसका लटपटाते हुए चलना, उसे तरह-तरह के चूहे बिल्ली की कहानियाँ सुनाना, एक-एक याद, मुझे खाये जा रहा है। जरा तुम देखो तो, कही मेरा शक सच तो नहीं है। उसकी खुली आँखें तो यही बता रही हैं कि अब्बा मैं जिंदा हूँ, मरा नहीं। सलमा रोती हुई कही---- यह तुम्हारा भ्रम है, पुत्रस्नेह किसी गहरे खड्डे की भांति तुम्हारे हृदय को भयभीत कर रहा है, जिसमें उतरते तुम्हारा दिल काँप रहा है।

सलीम---- पथराई नजरों से पत्नी की ओर देखता हुआ पूछा---- ’उसने मेरा बना बनाया घर क्यों उजाड़ दिया? सलमा के पास इसका कोई उत्तर नहीं था, क्योंकि जो कुछ हुआ, इतना आकस्मिक हुआ, जिसे वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी। सिर्फ़ इतना कहकर चुप हो गई, जिससे न्याय की उम्मीद रहती है, वही अन्यायी बनकर जब सामने आता है, तो दुनिया-जहान से विश्वास उठ जाता है। तभी किसी ने आकर दोनों पति-पत्नी से कहा---- अगला स्टेशन, बीहपुर है, आपलोगों को यहीं उतरना है न? उन्होंने कहा---- हाँ, और दोनों पति-पत्नी अपने बुझे दीये को आँचल की आढ़ करती हुई, बीहपुर उतर गये।

           इस घटना को घटे पाँच बरस बीत गये। आज भी प्रत्येक दीपावली पर, यह घटना ताजी होकर मेरी नजरों के आगे खड़ी हो जाती है, जिसके कारण मैं दीपावली मनाने का साहस नहीं जुटा पाती हूँ। मेरे अपने हृदय के इस निर्बल पक्ष पर अभी तक मैं दृढ़ हूँ।

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ