अपना भी ऋण चुका दो
नौ बज चुके थे| प्रकृति कुहरे के सागर में डूबी हुई थी| घर के द्वार बंद हो चुके थे, तभी बाहर से किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई| शांति आवाज देकर पूछी---- कौन हो, इतनी रात गए आये हो?
बाहर से आवाज आई---- मैं गोपाल हूँ; माँ! दरवाजा खोलो|
गोपाल, दिनाकर और शांति का एकलौता बेटा था, जो सपरिवार शहर में रहकर नौकरी करता था| दो दिन पहले ही वे लोग, यहाँ से पंद्रह दिन रहकर शहर लौटे थे| अचानक उसका लौटकर आना जानकर, दोनों पति-पत्नी किसी अनहोनी की आशंका से डर गये और दौड़कर दरवाजा खोले| देखे---- गोपाल खडा है, उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ है|
दिनाकर, गोपाल को देखकर शक भरे शब्दों में पूछा---- बेटा! सब ठीक तो है?
गोपाल सर हिलाकर बोला---- हाँ, सब ठीक है|
दिनाकर फिर बोले---- अचानक दो दिन बाद ही लौटकर आना, कुछ तो बात है? बेटा, खुलकर बताओ, मेरा प्राण हलक से निकला जा रहा है|
शांति, आँगन में आकाश की तरफ देखकर, बेटे गोपाल से कही---- मैं सत्तर की होने चली, इस दौरान इतनी ठंढ पड़ते नहीं देखा| ऊपर इन तारों को देखो, लगते हैं जैसे ठिठुर रहे हों| शुक्र है, ऊपरवाले की, जो बारिश नहीं है, नहीं तो आज तुमको स्टेशन से घर पहुँचने में बड़ी तकलीफ होती| माँ शांति के मुँह से, चिंता की बात सुनकर गोपाल का धैर्य टूट गया, और तैस में आकर कहा---- यह कहने के लिए आपलोग मुझे क्षमा कीजिये, कि यह मेरा घर है| मुझे तो लगता है, मैं कहीं से उड़ता हुआ यहाँ आया हूँ; जो आप दोनों ही अपरिचित सा, मेरे परिवार के साथ व्यवहार करते हैं|
बेटे गोपाल की बात सुनकर, दोनों पति-पत्नी आहत कंठ से बोले---- बेटा! वाक्य चतुरता कभी शांतिकारक नहीं होती, ऐसे भी तुम हमारी वृद्धावस्था पर दया करो, हमारी कमजोर आत्मा पर ऐसा निर्दय आघात न करो| तुम सारा कुछ मुझसे अलग कर लो; एक थाली में मत खाओ, मगर एक साथ मिलकर तो रहो| इतना संबंध तो रखो| तुम्हारे वैमनस्य और विरोध की यह ज्वाला-सम धूप असह्य हो रहा है| कहते-कहते शांति की जबान बंद हो गई, और आँख से आँसू निकल पड़े|
गोपाल ने इन विचारों को जैसे तुच्छ समझकर कहा---- माँ! किसी पर शासन करने के लिये, पहले स्वयं को शासित करना पड़ता है|
दिनाकर को कदाचित ही क्रोध आता था| मगर शांति के आँख के आँसू उनके क्रोधाग्नि को भड़काने में तेल का काम किया| बहुत देर तक चिंतन-मनन किये, फिर कांपते स्वर में बोले---- बेटा! तुम्हारी आँखें कह रही हैं कि हमसे तुम्हारी कोई शिकायत है?
गोपाल ने अपनी मनोव्यथा छुपाने के लिये, आँखें झुका लीं, मगर रोआँ-रोआँ को कान बना लिया, मानो ह्रदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग ,अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और चेष्टा, इसी हार पर केंद्रित है, उसके प्राण इसी हार के दानों में जा छिपा है| गोपाल ने दबी जबान में कहा---- आपलोग किसी स्त्री-पुरुष को देखकर ऊँगली उठाये बिना नहीं रह सकते, तो शौक से उठाइये ,मगर अपनों को तो बख्श दीजिये|
दिनाकर शांत, शीतल ह्रदय से कहा---- क्या तुम नहीं देख पा रहे कि हमारी इंसानियत शदियों तक खून और क़त्ल में डूबे रहने के बाद भी सच्चे रास्ते पर नहीं पहुँच पा रही है| बड़ी-बड़ी ताकतें भी इस सोच को कुचल नहीं पाई, क्योंकि जैसे सूखी जमीन में घास की जड़ें पड़ी रहती हैं, और ऐसा मालूम होता है कि जमीं साफ़ हो गई| लेकिन पानी की छींटें पड़ते ही वे जड़ें पनप उठती हैं| जानते हो, यह समाज जब तक एक नारी को, नर के बराबर का दर्जा नहीं देगा, हमारे दिल से रूढ़िवादी रीतियाँ नहीं मिटेंगी| मेरी समझ से यह कोई असाध्य बीमारी नहीं है| जरूरत है, ठीक से सही इलाज की| फिर व्यथित कंठ से कहा---- बेटा! हम गाँव में रहते हैं| यहाँ के आचार-व्यवहार भले ही किसी कानून के किताब में दर्ज नहीं हैं, पर संविधान से भी कम नहीं हैं| गाँव में रहने के लिये, गाँववालों द्वारा बनाये गए नियमों को मानकर जीना होता है| हमें तुमलोगों से कोई शिकायत नहीं है|
वो, तो जब पड़ोस के, विशेश्वर बाबू की पत्नी, तुम्हारी माँ से शिकायत की, कि आदमी कितना भी बड़ा हो जाये, अपने समाज की इज्जत करना आना चाहिए| कल रात मेले में तुम्हारा बेटा -बहू, इस तरह हाथों में हाथ डाले टहल रहे थे, मानो कोई विदेशी हो| ज़रा भी अपने बड़े-बुजुर्गों का ख्याल नहीं; शर्म नहीं था| इसके बाद तुम्हारी माँ ने बहू सुनीता को समझाते हुए कहा था---- बहू! सर पर आँचल रखा कर, यह शहर नहीं गाँव है| बस इतनी सी बात के लिए, माँ के खिलाफ बहू, तुम्हारे कोर्ट में मुकदमा दायर कर दी, और तुम किसी वकील की तरह माँ से जिरह करने, शहर से गाँव लौटकर आ गए| क्या पता था, शांति और ज्ञान की बातें आजकल की सभ्य प्रथा के प्रतिकूल है अन्यथा मैं तुम्हारी माँ को ऐसा कहने से रोक देता|
पिता की बातों को सुनकर, गोपाल की आँखों में तिरस्कार दिखा यह देखकर कि शान्ति की आत्मा उसे धिक्कारने लगी| कहने लगी---- जिस प्रेमलता को मुद्दतों से पाला, आँसुओं से सींचा, जिसे ध्यान में रखकर मग्न हो जाना, जीवन का सबसे प्यारा काम समझी, जिसे हम पति-पत्नी बेटा नहीं, अपना कर्णधार समझकर बड़ा किया, जिसे पाकर, ईश्वर की तरफ से अपने मातृत्व का पुरस्कार समझी, जिस पर मेरा वर्तमान इठलाता रहा, वह इतना कमजोर निकलेगा कि अपनी बीबी के अदावतों का हिसाब करने, माँ-बाप सामने इस कदर खड़ा हो जायेगा! मेरा निर्मल ह्रदय इतना बड़ा वज्रपात नहीं सह पा रहा है| मुझे लगता है, अब मेरी जिंदगी, नैराश्य और अंधकार भरी काल-कोठरी में दम तोड़ देगी|
दिनाकर, अर्द्धविश्वास से गोपाल की ओर देखकर कहा---- हमारी सारी आकांक्षाएँ जिस रक्षा तट पर विश्राम करती थी, बहू ने उसे विध्वंश कर दिया| अब मेरी डोलती नौका को कौन संभालेगा? यह कहते उसके ह्रदय पर क्या बीत रहा था, कौन जाने? उसका एकलौता बेटा गोपाल, जिसके वियोग में उसने सात साल रो-रोकर, काटे थे| सामने से भग्न ह्रदय, हताश चला जा रहा था और वह इस भाँति सशंक खड़ा था, मानो आगे कोई जलागार हो| ममता, मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, न जाने कहाँ-कहाँ खींच ले जाती थी दुआएँ, मिन्नतें, सभी बेकार हो रहे थे| तब मरने के लिए अमृत जान विष का कटोरा, अपने और उसके हाथों में थमा दिया था| लगता है, परमात्मा ने मुझे उसी पाप का दंड दिया|
जिस रोज से रेनू ब्याह कर आई, उस जैसी लज्जावती, सुशील, सुन्दर, शिक्षित बहू पाकर हम अपने भाग्य को सराह रहे थे| वह लज्जा की एक कुसुमित वाटिका सी लगती थी| उसमें हरियाली की मनोरम शीतलता थी| कोयल सी मधुर बोली दिल को हर लेता था| अचानक शहर जाकर उसमें इतना बदलाव कैसे आ गया? वे शांति से बिना कुछ बोले, गोपाल के पास जाकर करबद्ध खड़े हो गए, बोले---- बेटा! गलती तो हो चुकी है और वह भी अक्षम्य, इसकी सजा तो होनी चाहिए| तुम अपने राज्य के स्वतंत्र रजा हो| जैसा चाहो, वैसी सजा दो| हम सजा भोगने के लिए तैयार हैं|
तभी चौंककर गोपाल बोला---- यह सब क्या है पिताजी?
दिनाकर,व्यथित कंठ से कहा---- बेटा! पिताजी मत कहो, अभी मैं एक गुनहगार हूँ, एक गुनहगार किसी का, पिता और भाई नहीं होता! इसलिए मेरे गुनाहों की मुझे सजा दो; रिश्ते के बंधन में बांधकर घसीटो मत| मगर हाँ, कदाचित शूली पर चढाने से पहले अन्य फरियादियों की तरह मेरी भी एक फरियाद है---- जिस भाँति तुमने अपनी पत्नी का, पति होने का ऋण चुकता किया; हमारे पास आये, अब पुत्र होने के नाते, अपने माँ-बाप का भी ऋण चुकता कर दो| इससे ईश्वर की दृष्टि में तुम भी ऋणमुक्त होकर निर्दोष हो जाओगे, और हमलोग भी, परमात्मा के घर ख़ुशी से रह पायेंगे|
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