अरमानों में रोशनी नहीं
अरमानों में रोशनी नहीं, मगर
इच्छा मेंरहता , जीवन का रंग
मनुज सोचता,उठेगा एक दिन क्षितिज
-तट को छोड़, गगन में कनक घन
बरसेगा भू पर,अमर आभा का कण
तब भींगेगी धरती , भींगेगा मन
वायुउड़ा लेजायेगी
दुख – विपदा के पतझड़ को
जगती के मनुज प्रांगण से बाहर
श्री शोभा सा दीखेगा भुवन
तब न कभी मुरझेगा यौवन
पर कोई कितना कर ले पर्यत्न
मनुज वन से एक बार का गया
फ़िर लौटकर न आया बसंत
जिसने पतझड़ को बरा
उसी ने अपने जीवन को भरा
उसी ने अपने उर को नीरव
शोभा की लाली से, सका रंग
यौवन मधुवनकी कालिंदी ,जिसमें
अपूर्ण लालसा दिगंत को छूकर बहती
जीवन के दुर्गम पथ-पीड़ा को सह नहीं सकती
थोड़ी ही दूर चलकर , तोड़ देती दम
चिर तृषावंत मनुज की किस्मत की डोर
नियति के नियमों की दहकती डाली से
बाँधकर ,मालिक ने अन्याय किया घोर
अधर की सुधा,आँखों की लाली, जिसमें
यौवन उठाती तरंग , आनंद कुंज बहने से
लगा देती उस पर प्रतिबंध
मनुज ,आँखों से दो लावण्य लोक लिये
जीवन भर जीता खोकर उमंग
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