Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

आत्मदुर्ग पर, बड़े कड़े पहरे थे

 

आत्मदुर्ग परबड़े कड़े पहरे थे


             ईश्वर के दंड और दया से बेपरवाह रामबदन, अपने भविष्य चिंता का पाठ नहीं पढ़ा था| वह अपने जीवन का, अधिकांश समय, खाने-खिलाने, और मौज-मस्ती में व्यतीत करता था| उसके पिता धनिक लाल पुराने रईश थे| मुंबई के जुहू में उनका विशाल आवास, आकाश को छूता नजर आता था| पिता धनिक लाल के गुजरने के बाद रामबदन, मनमाना बन गया| नित ब्रह्मभोज, साधुओं, गरीबों, बेसहारों के भंडारे का इंतजाम, उसे अपनी बंशगत संपत्ति बेचने के लिए बाध्य कर दिया| वह चाहता, तो पिता की तरह धन से धन की वृद्धि कर, पहले से अधिक धनवान बन सकता था| मगर उसे नए मार्ग पर चलना पसंद नहीं था| 

             एक दिन रामबदन अपनी दाढ़ी काटते बख्त, देखा, ‘सामने रखे आईने पर, शरदकाल की कोमल किरण, गिर-गिरकर ऐसे छटपटा रही है, मानो, किसी ने उसकी ह्त्या कर दी हो| वह बचने के लिए आश्रय माँग रही है, मगर आईने की फिसलन, उसे ठहरने नहीं दे रही| यह देख रामबदन ने मन ही मन कहा, ‘इतनी निठुरता ठीक नहीं, इस पाषाण- ह्रदय को दया छूती क्यों नहीं? मैं तो, इस बेवकूफ आईने से यही कहूँगा, ‘आशा की बात छोडो, अभिलाषा तो पूरी होने देते, अपनी प्रेमिका से मिलने का आनंद उठा लेते, भावों की तृप्ति भी हो जाती, और मन को सुखद और रसमय कार्य भी मिल जाता| मगर इस आईने को कौन बताये, कि भाव-संसार का भ्रमण अतीव सुखमय होता है| तुम चाहते तो सुखद भावों का आनंद ले सकते थे| 

           यह सब सोचते-सोचते रामबदन की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन होने लगा| उसे ज्ञात हुआ कि मैं कौन हूँ? क्या मैंने अपना कर्त्तव्य निभाया? मैंने जो उसके साथ व्यवहार किया, क्या यही धर्मनीति है?  जब वह अपना जीवन मेरे लिए, धूल में मिला देने को तत्पर थी, तब मैं उसके बाल-ह्रदय के व्यवहार को क्षमा तक नहीं कर सका, यह विचार रामबदन के ह्रदय में काँटे की भाँति खटकने लगा| सोचने लगा, ‘न्याय और शील में परस्पर इतना विरोध क्यों? क्यों मैंने अपने आत्मगौरव के दुर्ग पर इतने कड़े पहरे बिठा रखे थे, कि वहाँ लज्जा की पूर्ण प्रतिमा का प्रवेश भी मुश्किल था| वह दुर्ग-द्वार पर खड़ी, प्रेम की अग्नि-चिता पर लेटी, व्यथित, लाचार, मुझे पुकारती रही, और मैं तन्द्रा के कल्पित स्वर्ग में, त्याग और अनुराग के स्वर्ण सिंघासन पर बैठा एक दार्शनिक की भाँति उसकी चंचलता की आलोचना करता रहा|

       माना कि, पूर्वजों का दिया धन-दौलत ने मुझे अपने कुंवारेपन का एहसास नहीं होने दिया, न ही हिन्दू-पवित्रता के कर्त्तव्य और आदर्श का कोई नियम स्थिर होने दिया| मैंने पुरुष धर्म की किताबें भी पढ़ी थीं, लेकिन उनका कोई चिरस्थाई प्रभाव भी मुझ पर नहीं पड़ा| कदाचित मैं उन सब बातों को भूल चुका था, मगर आज, शरद ऋतु की पहली किरण के सौजन्य से बीते दिनों की याद फिर से ताज़ी हो गई| दुःख होता है सोचकर, कि जिस प्रताप के लिए वह अपना अस्तित्व धूल में मिला देने को तत्पर थी, वहीँ मैं उसके बाल-व्यवहार को उसके ह्रदय की संकीर्णता मानकर अपना न सका| 

               जब से, सुबह की उस बाल-किरण को शीशे पर ठहर जाने के लिए छटपटाते देखा, मुझे अपने चित्त पर एक बोझ सा महसूस होता है| इस तरह मनो रामबदन के ह्रदय में, तूफ़ान उठ रहे थे| उसका बस चलता, तो बीते उन दिनों को लौटाकर, ऐसी सोच रखने वालों को सावधान कर कहता—देखो! ज्यों मैंने अपनी जवानी, मुहब्बत की बाजीगरी और प्रेम-प्रदर्शन में गुजारी है, उस तरह बेकैद, आजाद, बेवद कभी इस शाख पर, कभी उस शाख पर चहकनेवाली चिड़िया की तरह आगे किसी को अपनी उम्र गुजारने मत देना| इस संसार में पशुबल का प्रभुत्व है, किन्तु पशुबल को भी न्यायबल की शरण लेनी पड़ती है ; समय, ‘वह तुम्हारे पास जरूर आयेगा, ज्यों मैं आया हूँ|

              आज मैं अकेला हूँ, धन-दौलत साथ छोड़ दिया है, अपने-पराये रूठ गए हैं| मेरे लिये इन सब के विरोध की ज्वाला-सम धूप असह्य होता जा रहा है| तभी रामबदन को भूत के कोख से एक आवाज सुनाई दी; मानो कह रही हो, ‘ रामबदन! यह जीवन संग्राम का युग है| यदि तुमको संसार में जीना है, तो नवीण और पुरुषोचित सिद्धांतों के अनुकूल जीना होगा| जिसे अपने कुल-मर्यादा की परवाह नहीं, उससे उदारता की आशा व्यर्थ है| अरे! तुमने तो अपने कपटाभिनय के रंग से, उसे अपना अरमान तो क्या, मन भी रंगने नहीं दिया| इसलिए, समय तुमको माफ़ नहीं करेगा| माफ़ी चाहिए तो उस प्रेम नदी से माँगो, जो तुम्हारे विरक्ति-भाव के प्रचंड ताप में सूख गया|

 


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ