बाल -मजदूर
सदियों गुलामी की जंजीर में जकड़े रहने के बाद जब भारत को आजादी मिली, तब यहाँ बुनियादी सुविधाएँ तो दूर, लोगों को दो वख्त की रोटी भी नसीब नहीं होती थी । सरकार आम वासियों की गरीबी हटाने के लिए अनेक वृहद एवं सीमित योजनाएँ समय-समय पर बनाई; आज भी बनाई जा रही है , फ़िर भी समस्या जस की तस है । आज भी देश की आधी आबादी गरीबी की मान्य सीमा रेखा से भी निचली सतह पर जीवन जीने को विवश हैं । यह बात अलग है कि आज देश की आबादी पहले से तीन गुनी हो चुकी है । लोग पेट भरने के लिये दिन-रात एक जगह से दूसरी जगह भटकते चलते है । जहाँ मौका मिलता है, दो पैसे आय करने की, वहाँ अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी मजदूरी की भट्टी में डाल देते हैं ,जो देश और मानवता ,दोनों का अपमान है । कितने दुख और निराशा की बात है,जब इन बच्चों का पढ़-लिख कर अपना भविष्य संभालने की उमर होती है, तब ये बच्चे भूखे-प्यासे, नंग-धड़ंग रहकर दूसरों के घरों में या कल-कारखानों में काम करते हैं । उनकी छोटी-छोटी कोमल हाथों में ,लोहे पीटने का काम थमा दिया जाता है । ये बच्चे ,अपनी गरीबी के बोझ तले दबे, ना तो नहीं कर सकते, रो भी नहीं सकते । ये बच्चे केवल काम ही नहीं करते,निर्दयी मालिक की भद्दी-भद्दी गालियाँ भी सुनने के लिए बाध्य रहते हैं । कभी-कभी तो बातों से जब इन अमीरों का जी नहीं भरता, तब इन पर लात-घुसे भी आजमा लेते हैं ।
यूँ तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर प्रत्येक साल 12 जून को बाल-दिवस मनाये जाते हैं । बच्चे देश के भविष्य एवं कंर्णधार हैं,बताते हुए कहते हैं, बच्चों का उचित पालन-पोषण , देश का राष्ट्रीय एवं मानवीय कर्तव्य है । मगर वस्तु-स्थिति यह है, समस्या पहले सी जस की तस है । आज भी धड़ल्ले से बच्चों द्वारा मजदूरी कराई जाती है । किसे हम दोष दें, विडम्बना कहिये,खुद कानून बनाने वाले भी इससे अछूते नहीं हैं । ऐसे में चाइल्ड लेबर एक्ट को कौन लागू करायेगा ? दूसरी बात यह है कि अगर एक्ट को लागू भी कराया गया, तो भी बहुत कुछ हो जायगा,ऐसा नहीं है ; क्योंकि बच्चों से मजदूरी कराने की सजा,जितनी सख्त होनी चाहिये, वह नहीं है । इसमें दोषी को तीन महीने की सजा या 2000/- रुपये के जुर्माने का व्यवधान है । ऐसे मामलों की जल्द सुनवाई भी नहीं होती; बच्चे पुनर्वास केन्द्रों में फ़ंसे रहते हैं और वहाँ की हालत कैसी है, कौन नहीं जानता ?
आँकड़े की बात करें, तो अधिकतर ये बच्चे, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात , असम, कर्नाटक से होते हैं । 2009 में जब क्राय ने विश्लेषण किया, तो देखा गया; 10 से 18 साल के बच्चों में 42% बच्चे असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं । दिल्ली से तो आये दिन 14 बच्चे गायब हो रहे हैं। ये बच्चे जाते कहाँ हैं, किसी ने ढ़ूँढ़ने की कोशिश नहीं की । ये बच्चे तस्करों के हाथ, दूसरे देश पहुँच जाते हैं या देश के दलाल कहीं काम पर बाल मजदूरी में लगा देते हैं । 2001 के जनगणना के मुताबिक इनकी संख्या लगभग सवा करोड़ है, जब कि स्वयं- सेवी संस्थाओं के मुताबिक इनकी संख्या दो करोड़ आंकी गई है । समूचे विश्व में बाल मजदूरों की संख्या 24 करोड़ है ; जो कि चिंता का विषय है । ये बच्चे खतरनाक मशीनों, खेतों में प्रतिबंधित कार्यों में लगे हुए हैं । दुख की बात है कि इनकी संख्या दिन व दिन बढ़ती चली जा रही है ; इसका कारण देश-समाज में कड़े कानून का अभाव ।
इनकी बढ़ती माँग का कारण है , बाल श्रमिकों को ,युवकों- प्रोढ़ों की तुलना में सस्ते में मिल जाना, मुँह बंदकर जनवरों की तरह बिना आराम किये दिन-रात काम करना, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाली मीडिया भी पीछे नहीं है ; ये भी इनके शोषक हैं । हर शहर, रेलवे स्टेशन, बस-स्टैन्ड और सड़कों पर अखबार बेचते बच्चे , बाल-श्रम के प्रमाण हैं । मगर इसके विरुद्ध अपनी आवाज नहीं उठाते ; कितनी शर्मनाक बात है, सरकार ने इन बच्चों के लिए मुफ़्त शिक्षा योजना के अन्तर्गत ,मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की है । शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है,नारा दिया; बावजूद बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं । कोई शासकीय योजना उनके स्वस्थ जीवन की गारंटी नहीं दे पा रही । आखिर क्यों ? अन्यान्य कारणों के अलावा,एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है ,कि बाल –श्रमिक अधिनियम का प्रभावी ढ़ंग से लागू नहीं होना; जब कि भारत में बाल-श्रम के खिलाफ़ कानून बहुत हैं ।
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950, मौलिक अधिकारों और राज्यों के नीति निर्देशक –सिद्धान्त की विभिन्न धाराओं के माध्यम से कहता है ----------
(1) धारा-4 के तहत 14 साल से कम उम्र का कोई भी बच्चा फ़ैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया
जायगा और न ही अन्य किसी खतरनाक नियोजन में नियुक्ती की जायगी ।
(2) धारा—39 ई कहता है---राज्य अपनी नीतियाँ इस प्रकार निर्धारित करें कि श्रमिकों, पुरुषों और महिलाओं का स्वास्थ्य तथा उनकी क्षमता सुरक्षित रह सके और बच्चे की उम्र का शोषण न हो तथा वे अपनी उम्र या शक्ति के प्रतिकूल काम में आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रवेश न करें ।
(3) बच्चों को स्वस्थ तरीके से स्वतंत्र व सम्मानजनक स्थिति में विकास के अवसर तथा सुविधाएँ दी जाये और बचपन व जवानी को नैतिक व भौतिक दुरूपरोग से बचाया जाये ( धारा 31 एफ़) ।
(4) बाल-श्रम एक ऐसा विषय है जिस पर संघीय व राज्य सरकारें , दोनों कानून बना सकती हैं , और दोनों स्तरों पर कई कानून बनाये भी गये ; पर रीजल्ट वही ढ़ाक के तीन पात ।
भारत में बाल-श्रम की समस्या ,एक चुनौती बनी हुई है । सरकार ने जितने भी, इससे निबटने के लिए कानून बनायी, सभी बेअसर साबित हुए । सन 1979 में भारत सरकार ने इस विकट समस्या से निजात दिलाने हेतु उपाय सुझाने के लिए ’गुरूपद स्वामी समिति’ बनाई । समिति विस्तार पूर्वक इसका अध्ययन करने के बाद यह सिफ़ारिस किया, कि जब तक गरीबी रहेगी , तब तक बाल-मजदूरी रहेगी । सिर्फ़ कानून बन जाने से यह नहीं रूकेगा ; क्योंकि बाल-श्रमिक के मूल में उनकी दरिद्रता है । अपनी दरिद्रता के कारण ,माँ-बाप ,अपने बच्चों को कुछ पैसों के
खातिर बाल-मजदूर बनने के लिए मजबूर रहते हैं । निर्धनता बाल-श्रमिक को सबसे अधिक बढ़ावा देती है ।
कुछ कारण परम्परागत भी हैं; जैसे मोची, बढ़ई, कुम्हार , अधिकतर ये लोग ,अपने बच्चों को पाँच-सात साल के होते ही , अपने धंधे में लगा देते हैं । पढ़ाई-लिखाई की ओर स्वयं अनभिग्य रहने के कारण,ध्यान नहीं दे पाते । यूँ कहिये, ये लोग स्वभाव से ही श्रमजीवी होते है । इसलिए पढ़ाई-लिखाई की बात सोचते नहीं । लेकिन समय के साथ इनमें भी परिवर्तन आ रहे हैं । ये लोग भी धीरे-धीरे ही सही शिक्षा को अपनाने लगे हैं ; लेकिन इतना से नहीं होगा । हमारे समाज को भी आगे आना होगा, नहीं तो बच्चों का बचपन इसी तरह चिमनी के धूएँ और भट्ठी में जल-जलकर खतम हो जायगा ; जिसे इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा ।
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