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Dr. Srimati Tara Singh
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भगवान महावीर

 

भगवान महावीर ----- डा० तारा सिंह

मंगलं भगवान वीरो,मगलं गौतमो गणी ।
मगलं कुन्दकुन्दाधो,जैनधर्मोस्तु मंगलम ॥

आज से २६०० साल पूर्व,भारत की धरती पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन, वैशाली नगर के कुंडलपुर ग्राम में ( जो अभी बिहार प्रांत में है ), ग्यात्र वंशीय काश्यप राजा सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला के राजमहल में प्रभु जनम लिये । बचपन में उनका नाम बर्द्धमान रखा गया । मात्र बारह साल की उम्र में उन्होंने अनुभव किया,’ मनुष्य के लिए बिना अध्यात्म का आत्म कल्याण संभव नहीं । सांसारिक बंधनो से मुक्त होने के लिए महज अर्घ चढ़ाने से कुछ नहीं होगा ; बल्कि कुछ और है,जो मनुज समाज को सुखी जीवन का रास्ता दिखला सकता है । इसकी शुरूआत उन्होंने स्वयं अपने जीवन से की और संसार के मायामोह को त्याग,राजपाट को छोड़, हृदय को कंपा देने वाली यातनाओं को सहन करने ,घोर तपस्या पर निकल पड़े । तपस्या काल में उनके वस्त्र,अंग से गिरकर अलग होते चले गये ,मगर वे ध्यानमग्न अपने स्थान पर चट्टान की भाँति अडिग बैठे साधना में लीन रहे ।
इस साधना के लिए उन्हें किसी ने बाध्य नहीं किया,बल्कि वे स्वेच्छा से ,अपनी आत्मा से प्रेरित होकर, अपना राजपाट सब को त्याग कर, एकाकी अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए जीव और जगत के कल्याण की खोज के लिए, अपने माता-पिता,सगे-सम्बंधियों को छोड़ ,राजमहल से निकल कर, यहाँ-वहाँ भटकने लगे । लगातार बारह वर्षों तक घोर तपस्या कर ग्यान –प्राप्ति के बाद वे तीस सालों तक जन कल्याण के लिए नंगे पाँव ,गाँव-गाँव पदविहार करते रहे । उन्होंने बताया,; स्वर्ग जीवन की मुक्ति नहीं है । स्वर्ग भी संसार है और बंधन है । इन्द्रियों द्वारा जब तक सुख और दुख का अनुभव होता रहेगा, तब तक संसार रहेगा । मुक्ति के लिए अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करना होगा । उन्होंने इस बात पर जोर दिया ,’ तुमको मुक्ति चाहिये, तो इसके लिए शुभोपयोग और अशुभपयोग, इन दोनों से रहित होना होगा और वह दशा शुद्धोपयोग की है । योग और साधना के नाम पर चल रहे सारे शुद्धोपयोग व्यर्थ हैं । वे अतीन्द्रिय आत्मानुभूति नहीं करा सकते,बंधनों से मुक्ति नहीं करा सकते । भगवान महावीर की योगविद्या शरीर से रोग तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे तो पूरा भव-रोग को दूर करना चाहते थे । उनका कहना था, शुद्धोपयोग के लिए सब से पहले मनुष्य को गलत दृष्टिकोण छोड़ देना होगा ।
उन्होंने बताया --- राग-द्वेष तथा मोह से ग्रसित मनुष्य जागते हुए भी सो रहा है और यह प्रमाद स्वयं पर हिंसा का कारण भी बन सकता है । प्रभु की अहिंसा पूरे विश्व में प्रसिद्धि पाई । उनका कहना था,’अहिंसा केवल दूसरे जीवों को मारना ही नहीं, बल्कि स्वयं की जागृति भी है । जो स्वयं जाग गया,वह दूसरों को दुख दे ही नहीं सकता । व्रत-उपवास, संयम-शील, तपस्या के माध्यम से काया को जागृत करना, ही योग है । इस प्रकार आज से ढाई हजार साल पहले, प्रभु धरा पर आकर मनुष्य को जीने की कला दी । प्रभु के माध्यम से जितनी आत्माएँ जगीं और भगवत्ता को उपलब्ध हुईं, उतना और किसी के द्वारा नहीं हो सका । वे युग पुरुष हैं , उनकी अमृतवाणी केवल जैनियों के लिए नहीं, बल्कि सार्वकालिक, सर्वांग,सार्वजनीन और सार्वलौकिक है । उन्होंने जो कुछ उपदेश दिये, पहले उसे अपने जीवन में घटित किया । भगवान महावीर ( श्री आदिनाथ ) की परम्परा में २४ वें तीर्थंकर थे । उन्होंने बताया,’ तुम ही अपने मित्र हो और दुश्मन भी । धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के विरुद्ध उन्होंने जनमत को तैयार किया’ । ’ जीओ और जीने दो ’ का सिद्धान्त दिया । प्रभु ने सबों के लिए धर्माचरण के नियम बनाये और बताये,’ धर्म-साधना केवल सन्यासियों व मुनियों के लिए ही नहीं अपितु स्त्रियों ,गृहस्थों के लिए भी आवश्यक है’ । उन्होंने चन्दनवाला को साध्वी संघ की प्रथम सदस्या बनाकर इसकी शुरूआत की ।


कहते हैं, साधना के पहले ही दिन ,वे जंगल में ध्यान साधना में एकाकी,एक बिंदू पर खड़े थे । तभी एक ग्वाल अपना बैल चराते हुए उनके पास आया और कहा,’ आप मेरे बैल पर थोड़ी देर निगाह रखिये ; मुझे एक जरूरी काम याद आ गया है ।’ भगवान महावीर अपने ध्यान में ही लगे रह गये; इस बीच बैल चरते –चरते कहीं दूर निकल गया । लौटकर जब ग्वाल ने अपना बैल मांगा, तो भगवान महावीर कुछ नहीं बता सके । इस पर ग्वाल क्रोधित हो, प्रभु को पीटने लगा । वे अपनी जगह से एक ईंच हिले बिना मार खाते रहे । उफ़ तक न किये । यह सब देख,स्वर्ग में इन्द्र का सिहासन हिलने लगा । इन्द्र क्रोधित हो उठे और स्वर्ग से चलकर धरती पर उतर आये, तथा ग्वाल को सजा देने के लिए आगे बढ़े । तभी प्रभु ने ग्वाल को अग्यानी बताकर, इन्द्र से छुड़ा लिये और बोले, ’ इसे माफ़ कर दीजिये, यह नासमझ है ।’ बाद शर्मिंदा होकर ग्वाल ने प्रभु के चरण पकड़कर अपने किये की माफ़ी मांगी ।
आज वर्षा कम होने के कारण विश्व, पानी-पानी चिल्ला रहा है । किन्तु भगवान महावीर आज से २६०० साल पूर्व ही इसकी घोषणा कर चुके थे । उनका कहना था ,’ पेड़-पौधों को फ़लने-फ़ूलने दो । इन्हें मत काटो; ये सभी खुद जिंदा रहकर दूसरे जीव को भी जिंदा रखते हैं । पशु- पक्षियों को स्वच्छंद घूमने दो ; इन्हें मत मारो । जीव हत्या पाप है; इस धरती पर छोटे-बड़े सभी जीवों को जीने का अधिकार बराबर का है । मांसाहारी लोग कभी स्वस्थ जीवन नहीं बिता सकते ; अत: निरामिष होकर जीओ ।
वास्तव में भगवान महावीर, किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है; उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं , बल्कि नर का ही नारायण हो जाना है ।





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