बुढ़िया का लोटा
---डॉ० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई
हर रोज की तरह उस सुबह भी ब्रह्मवेला में जब उषा का अरुण आलोक भागीरथी की लहरों के साथ तरल हो रहा था ; मेरे पति और मैं गंगा-स्नान कर रही थी । सावन का महीना था, गंगा उफ़ान पर थी । मतवाली लहरें , किनारे को तोड़कर बहने के लिए उतावली हो रही थीं । तभी अकस्मात अंधेरा छा गया । काले बादल ,अरुण की स्वर्ण किरणों कोढ़ँक लिये और देखते ही देखते तेज बारिश शुरू हो गई । पक्षी ,तृण-तूलिका के समान आकाश में इधर-उधर विखरने लगे । पक्षियों के कोलाहल से गंगाघाट पर स्नान कर रहे सभी लोग, कुछ देर के लिए भयभीत और चिंतित हो उठे । तभी किसी के चीखने की आवाज आई । हमलोग आ रही आवाज की दिशा, की ओर दौड़े । वहाँ पहुँचकर देखा, एक बुढ़िया, मेरी दादी-तुल्य, छाती पीट रही थी और दो नौजवान उसे देखकर, तिरस्कार की हँसी हँसते हुए पूछ रहे हैं---दादी क्या हुआ ? तुम क्यों रो रही हो ? क्या तुम्हारा बूढ़ा खो गया है,उसे ढ़ूँढ़ दूँ ? बुढ़िया कुछ बोल पाती, उसके पहले ही , साथ का नौजवान गुर्रा उठा और बोला--- छोड़ो न यार ! ऐसे भी उम्रदार लोगों को बेमतलब चिल्लाने की आदत रहती है । अपने दोस्त के कथन में, हाँ से हाँ मिलाता हुआ, साथी नौजवान भी यह बोलकर चला जाने लगा कि इस बुढ़िया के किसी काम के लिए हम अपना समय क्यों बरबाद करें, हमें इससे फ़ायदा क्या होगा ?
नौजवान जाने ही वाला था कि मेरे पति ने उन्हें रोकते हुए कहा--- आदमी को किसी कर्म को करने के पहले उसमें सुख की ही खोज करना क्या अत्यन्त आवश्यक है ? सुख तो निबल, असहाय की सेवा से ही मिलता है । इस दुखमय संसार के कर्मों को धार्मिकता के साथ करने में ही सुख की संभावना है , और कुछ काम तो इस संसार में न चाहते हुए भी मनुष्य को करना पड़ता है । जीवन के सफ़र में कभी-कभी अकस्मात ऐसे भी प्रसंग आकर सामने गुर्राने लगते हैं, जिससे भागकर जान बचाना मुश्किल होता है । जानते हो, ऐसे वक्त पर तुम्हारे पास, अपने सुख और दुख की बात सोचने का समय नहीं रहता , बस करना होता है । इसलिए आज अपने लाभ और हानि की बात नहीं करो तो अच्छा है; ऐसे तुम्हारी मर्जी ! मेरे पति के इस अक्खड़ प्रश्न को सुनकर, उन दोनों ने उनकी ओर रक्त भरी आँखों से देखा, और उँचे स्वर में बोला---- कहाँ फ़ंस गये हम, हमने माना कि आप धर्म के सच्चे देवता हो, हमलोग आपको प्रणाम करते हैं , इसे स्वीकार कीजिए और पूछिये, ये बुढ़िया क्या माँग रही है ? मुँह में दाँत नहीं, पेट में आंत नहीं, और आवाज ऐसी ,कि जवान भी मात खा जाये । मेरे पति उनलोगों के साथ और अधिक वाद-विवाद न कर, बुढ़िया को निश्चल भाव से पूछा---- दादी ! क्या चाहिये तुमको ? दादी ने कहा--- बेटा ! मेरा लोटा , जब मैं उसे घिसकर साफ़ कर रही थी, हाथ से छूट गया और गंगा धार में बह गया; क्या उसे ढ़ूँढ़कर निकाल सकते हो ? कुछ देर तो मेरे पति खड़े अचंभित होकर सोचते रहे , फ़िर अचानक गंगा में कूद गये । शरद—काल की उजली धूप निकल आई थी , जो गंगा के तल तक फ़ैल रही थी । इसलिए उन्हें ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ा । लगभग एक किलोमीटर जाने के बाद ही उन्हें गंगा के तल में लोटा लुढ़कता हुआ जाता दिखाई पड़ा । वे झटपट डुबकी लगाकर, उसे अपने हाथ में उठा लिये और तैरते हुए किनारे आ गये । मेरे पति के हाथ में लोटा देखकर , बुढ़िया की खुशी का ठिकाना न रहा । उसने मेरे पति का मस्तक चूमतेहुए आशीर्वाद की झड़ी लगा दी ; जिसे देखकर मैं गर्व से मुस्कुरा पड़ी । इतना गर्व मुझे अपने पति पर इसके पहले कभी नहीं हुआ था ।
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