चला तो बहुत , पहुँचा कहीं नहीं
’चला तो बहुत , पर कहीं पहुँच न पाया’, यह एक संवाद है भगवान के नाम, उस जख्मी हृदय का, जिसने इस जग में अपनों से इतने चॊट खाये कि कराहता तो है, मगर किसी से बतला नहीं सकता । जॊर – जोर से रोकर दिल की पीड़ा को बाहर निकाल भी नहीं सकता है । वह प्रभु से कहता है, हे प्रभु ! चलते – चलते जिंदगी की शाम ढलने आई, लेकिन मैं तो जहाँ था, वहीं रह गया । पहले गरीबी मुँह चिढाती थी, अब मेरे अपने मुँह चिढाते हैं । पहले भी मैंने तंगी में जीवन बिताया, खाने – कपड़े को तरसा ; आज भी तरस रहा हूँ । तो फ़िर मैं इतना लम्बा समय पैदल चला क्यों ? जब मैं अपनी संतान के खातिर भूखा रहकर, पानी से पेट भरकर, रातों को सोने जाता था, तो सोचता था, मैं बहुत समझदार हूँ । किस – किस तरह से बुद्धि लगाकर पैसे को जोड़- जॊड़कर , अपने बच्चों को बड़ा कर रहा हूँ । मेरी जगह कोई दूसरा इतनी बुद्धि नहीं लड़ा सकता ; मैं सचमुच बुद्धिमान हूँ । मगर आज सोचता हूँ , मैं कितना बुद्धिमान हूँ, मैं खुद को नहीं आँक सका । मुझे लगता है कि मेरा वह त्याग, मेरी वह तपस्या, बुद्धिमानी नहीं, मेरा पागलपन था । जो मैं संतान मोह में करता रहा । तब और आज में , ( जब कि मरे संतान बड़े हो गये हैं, अच्छी नौकरी में हैं ) कुछ भी फ़र्क तो नहीं आया । तो क्या मेरा जन्म इस दुनिया में सिर्फ़ दुख और संताप के लिए हुआ – बोलकर, गुप्ताजी सिसक – सिसककर रोने लगे । गुप्ताजी दिल में इतनी पीड़ा, इतने जख्म, लेकर जी रहे हैं , सुनकर विभा की आँखें छलछल उठीं । गुप्तजी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ’विभा ! मेरी पीड़ा को सुनकर तुम इस प्रकार दुखी होवोगी, जानता तो अपनी बदनसीबी की कहानी तुमसे कभी नहीं बताता । मुझे माफ़ कर दो । तुमको दुख पहँचाने की मंशा मेरी जरा भी नहीं थी । मैंने बस तुममें तुम्हारी सहेली ( अपनी पत्नी मीना ) का रूप देखा, और बोलता चला गया । बोलते वक्त यह भूल गया कि तुम अतिथि हो।
अब तुम अपनी आँखों को पोछो और यह बतलाओ , ’ तुम्हारी जिंदगी का सफ़र कैसा है ?’ पूछने की देरी थी कि विभा फ़ूट- फ़ूटकर रोने लगी । यह देखकर गुप्ताजी को समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि उनकी कहानी से विभा की कहानी जरा भी अलग है और बोल पड़े, ’ आगे और कुछ बतलाने की , तुमको आवश्यकता नहीं है । मेरी राह से तुम्हारी राह , यहाँ भी कितनी मिलती-जुलती है । जवानी के दिन भी, हम दोनों की जिंदगी एक जैसी थी । हमलोग एक दूसरे को ढाढ़स दिलाते हुए यहाँ तक पहुँचे । लेकिन विभा , पहले की तरह मेरे पास संतावना के वे शब्द नहीं हैं कि तुमसे कहूँ, यह तंगी, यह गरीबी, कुछ दिनों की है । बच्चे जब बड़े होंगे, तब सब ठीक हो जायगा । मगर एक खुशी की बात यह है कि हमारी जिंदगी की शाम ढल आई है। हम बहुत लम्बा सफ़र तय कर चुके हैं; थोड़ी दूर और चलो, सब ठीक हो जायेगा, रात होने ही वाली है ।’
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