Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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चला तो बहुत, पहुँचा कहीं नहीं

 

चला तो बहुत, पहुँचा कहीं नहीं


दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद, जब रघुवीर घर पहुँचे, आँगन में बिछी फटी चटाई पर, बुझे अलाव की तरह बैठ गये| थोड़ी देरे सुस्ताने के बाद, अपनी पत्नी रधिया को आवाज देकर कहा----- सुंदर की माँ! कुछ खाने का है तो, दे दो| दिन भर चौद्धरी के दरवाजे पर लकड़ी के साथ अपना कलेजा फाड़-फाड़ कर थक चुका हूँ| अब हिलने-डुलने का भी सामर्थ्य नहीं बचा है|

रधिया, रघुवीर की तरफ मर्मभरी आँखों से देखकर बोली---- रात की कुछ रोटियाँ बची हैं, मैं अभी लाती हूँ| रधिया एक हाथ से मुँह का पसीना पोछती हुई, दूसरे हाथ में, थाली में कुछ रोटियाँ लेकर रघुवीर के आगे रखकर, कही---- आज घर में गुड़ नहीं है| 

रघुवीर, सिर हिलाकर कहा----- कोई बात नहीं, एक लोटा पानी दे दो| रात की रोटी कड़ी हो गई होगी| पानी में भिंगो दूँगा, तो मुलायम हो जायगी|

रधिया, रुँधे कंठ से बोली---- अभी लाती हूँ|

रघुवीर, पहला कौर के लिये रोटी तोड़े ही थे, कि बाहर से किसी के विलाप करने की आवाज उनके कानों में आई| बाहर निकलकर देखा, तो उनके होश उड़ गए| देखा पड़ोस का बिरजू, जो कल तक बिल्कुल सही-सलामत घूम रहा था, आज लोग उसे अंतिम संस्कार के लिए, अपने कंधे पर उठाये ‘राम नाम सत्य है ‘की आवाज लगाते श्मशान ले जा रहे हैं, और उसकी पत्नी ,रमबतिया विलाप करती, छाती पीटती, गिरती-बजरती पीछे-पीछे जा रही है| कुछ स्त्रियाँ उससे जानना चाह रही हैं, किस चीज की कमी थी, जो बिरजू भैया को आज जहर इतना मीठा हो गया, जिसे खाकर वे सदा के लिये सो गए|

किसी ने पूछा---- इनका एक बेटा भी है न, जो कलकत्ते में इंजीनियर है| वह कहीं दिख नहीं रहा, मुखबाती कौन करेगा? 

तभी रघुवीर गंभीर शब्द में बोले---- तुम्हारे जैसा विचारवान, प्रतिभाशाली इंसान की आत्मा को कैसे समझाया जाये, कि आजकल तुम जैसे साधक दुनिया में बहुत थोड़े बचे हैं, जो अपनेपन को इतना फैला दे, कि सारा संसार अपना हो जाये| अरे! अब तो खून पर भी छलधर्म और स्वार्थ का प्रकोप छाया हुआ है|        




         रघुवीर को लौटने में देरी होता देख, रधिया, आवाज देकर कही----  रात अधिक हो रही है, सुबह फिर तुमको लकडियाँ चीरने जाना है|

रघुवीर, कातर भाव से कहा---- अभी आता हूँ, और धीरे-धीरे आकर बरामदे में टूटे खाट पर लुढ़क गये| 

रधिया, रघुवीर के चेहरे की उदासीनता को देखकर समझ गई, आज फिर वही पुरानी चोट, ज़िंदा होकर इनके अंग-अंग में टीस मार रही है| शरद ऋतु की पत्तियों की तरह शरीर काँप रहा है| चेहरा फीका लगने लगा है, मानो, प्रतिक्षण उसका खून सूखता चला जा रहा है| 

रधिया ने, रघुवीर को, सहारा देकर, घर के भीतर ले गई और बिस्तर पर सुला दी, कही---- रघुवर! मैं तुम्हारी मनोदशा को भलीभाँति समझ रही हूँ| जिसका पूरा जीवन, गृहस्थी की चिंताओं में कट गया| आय भी कभी इतनी नहीं हुई कि अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के बाद कुछ बचता| जब से सुंदर जन्म लिया, तभी से हमदोनों की तपश्चर्या की शुरूआत हुई, और सारी लालसायें, एक-एक कर धूल में मिल गईं| हम अपने सन्तान-मुख पर इतने आकर्षित हुए जीते थे कि उसके सिवाय कुछ और देखने की इच्छा ही नहीं होती थी| यहाँ तक कि अपनी दरिद्रता में भी, एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती थी, जिसके कारण निर्लज्जता के तकाजे, गाली तथा मार से भी अपनी अधोगति पर लज्जा हमें नहीं आती थी|

             याद है राधे---- आज से ज्यादा दिन नहीं, बस पाँच साल पहले की बात है| सुंदर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था| उसकी पढाई के पैसे जुटाने के लिए, मैं चौधरी के घर दिन की मजदूरी करने के बाद रात को घास काटने जाया करता था| एक शाम, इंद्र  भगवान, अपना होश खो बैठे| उन्होंने अपने गुस्से की, इतनी तेज बारिस कराई, कि खेत-खलिहान, घर-द्वार, सब जलमग्न हो गए| लोग अपने-अपने पशुओं के साथ इधर-उधर भागने लगे|

हम दोनों भी अपनी गाय लेकर, गाँव से दूर भागे| दूसरे दिन हम जब चौधरी के घर गए, हमें देखकर चौधरी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया| उन्होंने आव देखा, न ताव, न उम्र की लिहाज की, न मेरे कंकाल शरीर पर दया आई, 

मेरे गालों पर जोड़ का तमाचा जड़ते हुए, खड़े-खड़े घंटों गालियाँ बकते रहे| मैं खामोश सुनता रहा, मिनका तक नहीं; झुंझलाहट हुई, क्रोध आया, खून खौला, आँखें जलीं, दांत पीसे; लेकिन मुँह से कोई आवाज नहीं निकाला और पहले की तरह गड़ासा लेकर घास काटने बैठ गया| आखिर करता ही क्या, सर पर सुंदर की पढ़ाई के लिए, पैसे जो जुटाने थे| सच मानो रधिया, तब मुझे अपनी आत्मा की इतनी ह्त्या करनी पड़ी, कि उसके बाद मुझमें आत्माभिमान का नाम ही नहीं रहा|


           रधिया कुछ देर तक सब सुनती रही, कि अचानक खिल-खिलाकर हँस पड़ी| रघुवीर को लगा, कि मानो रधिया कोई स्वप्न देखती-देखती जाग उठी हो| रघुवीर एक अव्यक्त भय से काँप उठा| मन ही मन कहा---- रधिया महीने के तीस दिन और दिन के चौब्बिस घंटे, हमने सुंदर की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद की कल्पना, जिस मनोहर-स्वप्न देखने की आश में कटते थे| वे आकांक्षायें और कामनाएँ कभी पूरी होने वाली नहीं हैं; केवल तड़पने के लिए थीं| वह दाह और संतोष शान्ति का इच्छुक नहीं था| केवल एक कल्पना थी, हमलोग जिस कल्पना पर अपना प्राणार्पण करते थे| आज उसकी उपस्थिति ने, हमारी सुखद कल्पना और मधुर स्मृति का अंत कर दिया|


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