चाँदी की बिछिया
बीते दो सालों से, सिमरण की बड़ी इच्छा थी,माघी पूर्णिमा पर गंगा-स्नान की, जो इस साल पूरी हो गई| मगर एक दूसरी इच्छा वहाँ से साथ लेती चली आई, जिसे पूरी होती न देख, वह विक्षिप्त रहने लगी| हर समय उसे बस एक ही चिंता रहती थी, इसे कैसे हासिल किया जाय? इसी खिन्नावस्था में बैठी हुई थी कि तभी उसकी सास, शांति तिलमिलाती हुई आई, बोली---- बहू, घर में मेहमान आये हैं, और तुम चुपचाप यहाँ बैठी हुई हो, अरि! उसके खाने-पीने का इंतजाम करना होगा न?
सिमरण,सास की बात सुनकर प्रचंड हो बोली---- माँ जी! निंदा के भय से, प्रत्येक आपत्ति के सामने सिर झुकाना, आपके लिए अच्छी बात होगी, पर मुझे मजबूर मत कीजिये| आपकी शिष्टता का आधार ही आत्महत्या है| घर में अनाज के दाने भले न हो, किन्तु कोई मेहमान आ जाए, तो ऋण लेकर भी उसका सत्कार करो| मैं ऐसे मेहमान को दूर से ही प्रणाम करती हूँ, चाहे वह मेरा भाई और पिता ही क्यों न हो| असमय बिना सूचना के किसी के घर, दो आदमी मिलकर, जाड़े की रात में बिना चादर-कम्बल के आ धमकना, अत्याचार नहीं तो क्या है? नित कोई न कोई निठल्ले नातेदार बताकर यहाँ खाट तोड़ता रहता है| इस कदर बहू का जोर-जोर से चिल्लाकर बोलना, शान्ति को पसंद नहीं आया| वह उल्टे कदम, बेटे अनुराग के पास गई, पूछी---- अनुराग! आजकल बहू बड़ी तैस में बात करती है| क्या बात है, जब से गंगास्नान कर लौटी है, न किसी से बोलना, न रसोई बनाना, कैसे चलेगा? घर-बाहर दोनों मैं देखूँ, ऐसी मेरी उम्र तो रही नहीं, बहू कहती है---- आपलोग अतिथि-सत्कार में धन-व्यय क्यों करते हैं? बेटा! इसे तो कुल-मर्यादा की भी परवाह नहीं है| हमेशा यहाँ की तुलना अपने माइके से कर मुझे नीचा दिखाती है; उसे पता होना चाहिए, अतिथियों का आना-जाना, और उसका सत्कार करना, हमारी प्राचीन प्रथा है| इसे तोड़कर समाज में लोग, सुखी जीवन निर्वाह नहीं कर सकते| अब उसे तुम्हीं समझाओ, कहो---- हमारे घर-आकाश की सरलता, श्रद्धालुता और निर्मलता में, अपनी स्वार्थांधता, कपटशीलता और मलिनता से कालिमापूर्ण न करे, अन्यथा हम अपनी ही दृष्टि में गिर जायेंगे|
अनुराग, सिमरण के कमरे में जाकर, सिमरण की तरफ अनुरोध नेत्रों से देखकर पूछा---- क्या सब कुशल तो है? ऐसा कहकर, दरअसल अनुराग, समीरण की मनोमालिन्यता को मिटाने के लिए, अपनी आत्मीयता को उपहार स्वरूप प्रकट किया|
समीरण, अनुराग के शब्द-मर्माघात को सह न सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा| वह झमककर वहाँ से चली जाने के लिए उठी| मगर अनुराग ने, अपनी बाँहों के दायरे में बाँधकर उसे वहीँ रोक लिया, और कातर नेत्रों से पूछा---- आजकल (मेरे कहने का मतलब) जब से तुम गंगा स्नान से आई हो, कुछ बदली-बदली सी क्यों रहती हो? क्या माँ ने कोई गलती की है, या मुझसे कोई अपराध हुआ है?
सिमरण, मन ही मन अपनी आशाओं की पुष्टि और समाधान चाहती थी; इसलिए उसने सोचा---- बिना देर किये बता देना उचित होगा, ऐसे भी मनोभाव पूर्व विचारों को प्रकट करने के निमित्त कैसे-कैसे शब्द गढ़ते हैं, परन्तु समय पर शब्द हमें धोखा दे जाते हैं, और वो भावना, स्वाभाविक रूप से प्रकट नहीं होती|
सिमरण, भविष्य चिंता की पाठ नहीं पढ़ी थी| उसका जीवन-ध्येय बस इतना था, खाना –पहनना और नाम के लिए मर जाना| वह अनुराग के वंशगत संपत्ति का अधिकांश हिस्सा बर्बाद कर चुकने बाद भी, अपने व्यवहारिक जीवन में संशोधन करने की जरूरत नहीं समझती थी| गंगा-स्नान से लौटते वख्त बातों–बातों में जब से अनुराग ने सिमरण से बताया है, कि महाजन को पैसे लौटाने के लिए खेत तो गिरवी रखा, मगर पैसे लौटाने का समय निकाल नहीं सका| सभी पैसे घर में हैं, समीरण यह जानकर ऐसी प्रफुल्लित हुई, जैसे प्यासे को पानी मिल गया|
बस तभी से सिमरण घर की आलमारियों और ताखों की ओर उत्कंठित नेत्रों से निहारने लगी, यह सोचकर कि भूलबस अगर आलमारियाँ खुली रही होंगी, तब सबसे नजरें बचाकर, कुछ पैसे निकाल लेती| जिससे बरसों की इच्छा (पाँव की बिछिया) पूरी हो जाती| मगर ऐसा कभी नहीं हुआ, कि अनुराग आलमारी खुला छोड़ा हो| उसे तो खुद कर्ज की चिंता-व्याधि घेरे रहती थी; आखिरं एक दिन सिमरण ने मन ही मन तय किया, चाहे बिछुआ पाने के रास्ते कितने ही दुर्गम क्यों न हों, मुझे उस पर चलना होगा| उसने तय किया, जब तक बिछिया हासिल नहीं कर लेती, मैं इस वर्ष को शोकसाल की तरह बिताऊँगी, कोई उत्सव नहीं मनाउँगी; चाहे वह धार्मिक उत्सव ही क्यों न हो|
दशहरे का उत्सव था| सभी के मुखमंडल पर एक गर्व की ज्योति झलक रही थी लेकिन सिमरण की आँखों में दर्द के आँसू भरे हुए थे| नाना प्रकार की चिंताओं और बाधाओं में ग्रस्त जीनेवाले, अनुराग को यह समझते देर न लगी, कि सिमरण चुपचाप एक तपस्विनी की भाँति अपने कमरे में क्यों पड़ी रहती है? क्या वह अपनी दीनता को अपने पैरों तले कुचलने की कोशिश कर रही है, जो कि असंभव है|
अनुराग, दीन भाव से समीरण की तरफ देखा, और बोला---- क्या बात है सिमरण?
सिमरण सोचने लगी---- किस प्रकार अपने क्रोध को प्रकट करूँ? उसने अपना मुँह ढंक लिया और तय किया---- अनुराग के पूछने से, कठोरता से कह दूँगी कि मेरे सर में दर्द है, मुझे तंग मत करो| तब वह अवश्य समझ जायगा, कि कोई बात मेरी इच्छा के प्रतिकूल हुई है| जब वह गिड़गिड़ायेगा, तब व्यंग्यपूर्ण बातों से उसका ह्रदय बेध दूँगी| इससे व्यथित हो, वह मेरी हर बात को मानने के लिए बाध्य हो जायगा, और वही हुआ भी, त्याग ने भोग की तरफ सर झुका दिया|
अनुराग, अपने भय-लताओं के झुरमुट में छुपकर कहा----समीरण, एक आश्रयहीन को यहाँ रात ठहरने मिलेगा, कहकर उसका हाथ पकड़ लिया|
समीरण, झटका देकर अपना हाथ छुडा ली, और बोली---- और तो और, तुम भी मेरा प्राण-ग्राहक बन गए हो!
अनुराग मर्माहत होकर बोला---- सिमरण, होश में तो हो, मैं तुम्हारा प्राण-ग्राहक बन गया हूँ, यह सब कहने से पहले एक बार विचार तो कर लेती| तुम्हारा यह आरोप सर्वथा निर्मूल है| शंका की भित्ति पर दीवार उठाना ठीक नहीं, तुम्हारी दशा तो अभी उस पौधे सी है, जो प्रतिकूल परिस्थिति में जाकर माली के सव्यवस्था करने पर भी दिनोदिन सूखता जाता है| तुमको क्या हुआ है, दयाकर अपने दिल का बोझ उतारकर, मेरे सिर का बोझ हल्का कर द| सिमरण को मनाते-मनाते तीन घंटे बीत गए, द्वादशी का चाँद अपना विश्व-दीपक बुझा दिया| गाँव की गलियों में सन्नाटा छा गया| अनुराग की आँखें नींद से बोझिल थीं| उसने बड़ी ही विनम्रता से कहा---- सिमरण, सुबह होने ही वाली है; कुछ देर सो लेती, तो अच्छा था|
अनुराग के जागते ही मौन बैठी सिमरण उग्र होकर बोली---- पता नहीं, मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूँ| संसार में लाखों स्त्रियाँ, मेहनत-मजदूरी कर अपनी जिंदगी काट रही हैं, मैं अपने पाँव की एक जोड़ी बिछुवा नहीं खरीद सकती|
अनुराग, जानता था, समीरण के साथ कपट करके, मैं अपनी नीचता का परिचय दे रहा हूँ---- दोषी मैं हूँ, जो अपनी असली दशा को, बदनामी की तरह सदैव तुमसे छिपाता रहा| मुझे माफ़ कर दो, मैं एक गरीब आदमी हूँ, दो रोटी के सिवा और कुछ सोचना मेरे लिए पाप है, पाप|
सिमरण सिसकती हुई कही---- अनुराग, असल में तुम्हारी नीयत में खोंट है| नहीं तो इतना बहाना नहीं करते, पैर की बिछिया ही तो माँगी थी, सोने की हार तो नहीं| तुम्हारे पास अभी पैसे हैं, तुम चाहते नहीं देना|
अनुराग व्यथित स्वर में कहा---- जिस पैसे की तुम बात कर रही हो, वो कर्ज के पैसे हैं, जिसे चुकता करने के लिए, मैंने अपने बाप-दादा की अंतिम निशानी, अपने घर का एक हिस्सा बेच दिया है| मैं मानता हूँ, आभूषण मंडित इस विश्व में, तुम्हारा आभूषण-प्रेम स्वाभाविक है| मगर अभागे के घर ब्याही कन्या, अपने कर्मों का नहीं, बल्कि अपने जीवन-संगी के कर्मों का फल उसके साथ रहकर, उसकी दरिद्रता में भोगती है| मैं जानता हूँ, समीरण तुम्हारी यह वेदना रजनी से भी काली, और दुःख-समुद्र से भी विस्तृत है| मगर क्या तुम जानती हो, सोने–चाँदी से लदी राजमहल में रहने वाली, (सर्वसुख संपन्न) रानियाँ भी नित घुंट–घुंट कर जीती हैं? क्यों,उनके पास स्वर्ण तो है, मगर उसे देखने वाला नहीं होता? राजा की कई रानियाँ होने के कारण, महीने में एक बार भी पति-प्यार नहीं मिलता है, तब वही आभूषण गले में सर्प जैसा तकलीफ देता है|
समीरण, हतबुद्धि अपराधी सी, अनुराग की तरफ देखकर बोली---- तुम्हारे कहने का अर्थ, इस धरती पर कोई सुखी नहीं है|
अनुराग, एक नि:श्वास छोड़कर कहा---- वो इसलिए कि, इस अनंत ज्वालामुखी सृष्टि के कर्त्ता, इसी दुःख-दर्द से डराकर ही तो, अपने होने के अस्तित्व का एहसास कराता है| जानती हो, अमीरी की बाढ़ में बहकर मिट जाने वालों की संख्या गरीबों से अधिक है; कारण आँधी-तूफ़ान में बड़े-बड़े वृक्ष गिरते हैं, घास-पौधे नहीं|
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