Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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चरण-चिन्ह

 

चरण-चिन्ह

            जीर्ण–मलिन वसन में अपने साये को लिपटा देख कजरी खुद को संभाल न सकी। उसका दरिद्र हृदय, अपने सम्पन्न जीवन की पूर्व कथा को विस्मृत कर निरीह बालक की तरह घुटनों से ठुड्डी लगाकर बिफ़र उठी। वह अपने हृदय की कोठरी में बिखरी हुई दरिद्रता की विभूति को देख, तिलमिला गयी और मन ही मन विधाता से प्रश्न की, कि हे विधाता!’ मेरे साथ इतनी निर्दयता क्यों, इसलिए कि मैं तुमसे डर जाऊँ? लेकिन तुमको पता है, अब खोने के लिए, मेरे पास अब कुछ नहीं है, जो तुमसे डरूँ। एक जान है अपनी, जो अभिशाप बनकर दिन-रात मेरे साथ रहती है। तुमने मुझे बनाकर, मुझ पर कोई एहसान नहीं किया, बल्कि अपनी गिनती ठीक रखा। तृण- तृण में अपना स्वाभिमान झलकाने वाले, तुम इतने स्वाभिमानी हो, कि तीनो लोक का मालिक होकर भी संतुष्ट नहीं हो, तभी तो एक निबल-असहाय का भी सहारा छीनते तुमको जरा भी दुख नहीं हुआ। मगर तुमको पता होन चाहिये, हर अच्छे-बुरे काम का इनाम होता है, यह बात तुम्हीं ने गीता में कही है’। 

         कजरी अपनी बात पूरी भी नहीं कर सकी थी कि सहसा उसका मन एक विचित्र भय से कातर हो उठा। उसने आकाश की ओर मुख उठाकर पूरी शक्ति से एक पत्थर ऊपर उछाल दिया और एक लम्बी साँस छोड़ती हुई बोली---- ’यही तुम्हारा इनाम है।’ कजरी को ऐसा करते देख, दूर खड़ा युवक से रहा न गया। वह कजरी के पास आया, और रोष भरी दृष्टि से देखते हुए कहा----’ तुमने जो पत्थर ऊपर की ओर उछाला, किसी राहगीर को लग जाता, तब क्या होता?’

युवक का अंतिम शब्द तुफ़ानी क्रोध में डूब गया। कजरी उड़ती निगाह से युवक की ओर देखी और रोज की तरह, गंगा तट पर बिखरे कंकड़-पत्थरों को खंगालने लगी। एक क्षण बाद कजरी सजल नेत्रों से युवक की ओर देखती हुई, काँपते स्वर में बोली---- ’वह क्षण-क्षण पत्थर मारकर मुझे घायल करता है; मैंने एक पत्थर मारा, तो तुमको आपत्ति हो गई। कभी तुमने उस से भी पूछा कि, जो आदमी सर से पाँव तक लहू-लुहान है, उस पर तुम पत्थर क्यों मारते हो? नहीं पूछा न, पूछोगे भी कैसे, उससे डरते जो हो? ’

उत्तर में युवक शांत भाव से कहा---- ’दादी, वह ईश्वर है: उससे हर कोई डरता है, तुमको भी डरना चाहिये।’

कजरी करुण स्वर में बोली---’ जिसे अपनों का प्रेम और दूसरों का आदर मिलता है, उसे इन्हें खोने का डर रहता है। मुझे क्या मिला, मेरी जिंदगी तो वृथा गई। अगर मुझसे कोई प्रेम करता भी है, तो वह दया है, प्रेम नहीं।’ फ़िर अपनी आवाज में कठोरता लाती हुई कही---- ’तुम कौन हो युवक? क्यों अपना समय यहाँ बर्बाद कर रहे हो? अधिक दार्शनिकता की बात छोड़ो और यहाँ से चले जाओ। तुमको देखकर लगता है, तुमने अभी तक रमणी की नम्रता और उसके सल्लज अनुरोध का स्वाद नहीं चखा है। वरना, मेरे बच्चों की तरह तुम भी पाप-पुण्य से परे होते।’

युवक कुछ देर तक उधेड़बुन में पड़ा रहा। वह बुढ़िया की डूबती आँखों में उसके कथन का आशय ढ़ूँढ़ने की कोशिश करने लगा, फ़िर सहसा बोल उठा---- ’लेकिन तुम गंगा के किनारे बिखरे इन कंकड़-पत्थरों को नित बैठकर गंगाजल से धोती क्यों हो? क्या तुम्हारा कोई कीमती चीज यहाँ खो गया है?’

कजरी भरी आँखों से युवक की तरफ़ देखी, बोली---- ’हाँ, बेटा, मेरा तीनो- काल यहीं खोया है। मैं उन्हीं तथागत के चरण-चिन्हों को यहाँ ढूँढ़ती हूँ, जो बहुकाल तक यहाँ अंकित थे, लेकिन अब ढूँढ़े नहीं मिलते।’

         इतना कहते ही कजरी का सूखा, पिचका हुआ मुँह तमतमा उठा। सारी झुर्रियाँ, सारी सिकुड़नें जैसे भीतर की गर्मी से तन उठीं। गली-बुझी आँखें जैसे जल उठीं। वह आँखें निकाल कर युवक से बोली----’ मेरे नजदीक आओ, और देखो। इन छोटे-छोटे पत्थरों के टुकड़ों में, तुम्हें कोई आकृति दिखाई पड़ती है।’ 

युवक कजरी के अस्त-व्यस्त भाव, उन्मत्त सी तीव्र आँखों को देखकर डर गया। उसने सशंक दृष्टि से कजरी की ओर देखा, और कहा---- ’दादी, ये छोटे-छोटे पत्थर जिसे तुम खंगाल रही हो, ये पहाड़ पर से लुढ़कते हुए नीचे आते है, जिसके कारण घिस जाते हैं और घिसने के कारण, इनमें अनेक तरह की आकृतियाँ उभर आती हैं। यह किसी का चरण –चिन्ह नहीं है।’

युवक की बात ,कजरी को अच्छी न लगी। वह गुंजती हुई बोली---- ’तो वे यहाँ से उस दूर देश को कैसे गये,चलना तो पड़ा ही होगा न,और जब कोई चलेगा, तो उसके चरण-चिन्ह भी बनेंगे।’

युवक को उसकी बातों का आशय समझने में देर नहीं लगी, वह सब समझ गया। इसलिए उसने सोचा कि बात को मोड़ देना ही उचित होगा। उसने कहा---- ’दादी! आपके बच्चे, आपका घर पर इंतजार कर रहे होंगे। अब आपको घर जाना चाहिये।’ 

कजरी के पास जैसे जवाब पहले से ही तैयार था; वह बोल उठी---- ’बेटा! अपनी चिता खुद के हाथों, मैंने सजाना सीख लिया है। अपने पति की चिता भी मैंने ही तैयार की थी। बाकी रहा मुखबाती, तो मेरे बच्चे, मेरे जीते जी मुखबाती कर, घर से निकाल चुके हैं। मेरा अपना अब कोई नहीं, तभी तो इस श्मशान में पड़ी रहती हूँ, और जब जी नहीं लगता, तब उनसे बातें करने गंगा के तट पर आ जाती हूँ। इसी तट से वे महायात्रा पर गये हैं।’
 

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