छोटी बहू
खेल-खेल में बिरजू की नजर, पास के छत पर खड़ी सलौनी पर जब पड़ी, उसके मुँह से हठात निकल पड़ा, ‘या खुदा क्या चीज है? किस फ़ुर्सत में तुमने इसे गढ़ा होगा? फ़ूलों से छीनकर उसकी कोमलता, इसके बदन में भरा होगा और रंग इतना गोरा कि अँगारा भी मात खा जाये|’ तभी उधर से गुजर रहा बिरजू का चाचा घीसू, ठिठककर खड़ा हो गया| उसे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था, कि यह सब बिरजू बोल रहा है! चाचा घीसू बिना देरी किये बिरजू के पिता, धन्नालाल के पास गये, और बोले, ‘धन्ना! तुम कहो तो कुछ बोलूँ|
बिरजू उस समय अपने मवेशी के लिए चारा काट रहा था| वह नजर उठाकर देखा, तो सामने घीसू खड़ा था| धन्नालाल, मुस्कुराते हुए कहा, ‘”अब तक जो बोला, क्या वह सब तुमने मुझसे पूछ कर बोला; अगर नहीं, तो आगे भी बक जाओ| इसमें पूछने की क्या बात है, मैं कोई ऑफ़िसर तो हूँ नहीं, न ही कोई नेता; बस एक मामूली किसान हूँ| मेरे पास बातचीत करने के सिवा और काम ही क्या है?’
घीसू सब्जी की थैली अपने बगल में रखते हुए कहा, ‘ मैं जो कह रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो| हर बात में ठिठाई अच्छी नहीं होती|’
धन्नालाल, क्षमा माँगते हुए कहा, ‘ठीक है भाई, गलती हो गई, माफ़ कर दो|’
घीसू, अगल-बगल झाँकते हुए, फ़िर धीरे से कहा, ‘तुम्हारा बेटा बिरजू जवान हो गया|’
घीसू की अटपटी बातें सुनकर धन्ना ठहाका मारकर हँसने लगा और फ़िर गंभीर स्वर में कहा, ‘वो तो होना ही था| एक दिन तुम भी जवान थे, मैं भी था| तो इसमें नयापन क्या है? ऐसे भी यह तो विधि का विधान है, पहले बच्चा, फ़िर जवान, उसके बाद बूढ़ा| बीरजू बच्चा है, तो जवान होगा ही|’
घीसू की बातों को इस प्रकार धन्ना का हल्के में लेना घीसू को अच्छा नहीं लगा| वह बिना कुछ बोले तेज गति से उठा, और मुँह में गिलौरी रखता हुआ, आँगन से निकल गया| घीसू का इस कदर जाना देखकर धन्ना का मुँह पीला पड़ गया| वह घीसू को आवाज देता हुआ, उसके पीछे भागा, और उसे रोककर पूछा, ‘तुम नाराज हो गये, चलो मैं कान पकड़ता हूँ| मुझे माफ़ कर दो, और विस्तार में बताओ कि तुम दर असल कहना क्या चाह रहे थे?’
घीसू फ़िर वही अलफ़ाज़ दुहराया, ‘धन्ना, तुम्हारे बेटे बिरजू को मैंने आज जवान होते देखा है; उसकी आँखों में गुलाब की गर्द उड़ते देखा है| उसे भीतर ही भीतर कोई रंगीन बना रही है, जिसके यौवनोन्माद की माधुरी को वह पीना चाहता है|”
धन्ना अचंभित होकर बोला, ‘वो कैसे?
घीसू, छत पर की पूरी घटना धन्ना से बताते हुए कहा, ‘अब अच्छी लड़की देखकर शादी देने की बात सोचो, मगर हाँ, इस बार बड़े बेटे की तरह फ़िर न धोखा खा जाना| छोटा बेटा है, लड़की अच्छी और कुलीन देखकर लाना, ताकि इस बुढ़ापे में तुम पति-पत्नी को दो बख्त की रोटी बनाकर दे सके| बड़ी का तो देख लिया, ईश्वर न करे, किसी को ऐसी बहू दे| ऐसे तुम कहो तो, मैं अपने मामा की भतीजी के बारे में सोच सकता हूँ”
धन्ना अँगोछे को कमर पर बाँधते हुए कहा, ‘इसमें कहना क्या है? तुम अगर उचित समझो, तो बात को आगे बढ़ाओ|”
घीसू गंभीर स्वर में बोला, ‘ठीक है, अभी के लिए चलता हूँ, कुछ हाँ हुआ तो फ़िर आऊँगा|’
एक दिन धन्ना गाँव के बाहर, देवमंदिर के द्वार पर बैठा हुआ था, तभी देखा, घीसू कुछ केले, नारियल, अंडे आदि लिए धन्ना की ओर बढ़ा चला आ रहा है| धन्ना को समझते देर न लगी कि खबर अच्छी है| उसने घीसू को दोनों हाथ से आने का इशारा करते हुए चिल्लाया, ‘बाज़ार से लौट रहे हो, क्या हाल है, समाचार सब ठीक है तो?’
घीसू चिल्लाकर कहा, ‘हाँ बिल्कुल ठीक है, आगे बताता हूँ| घीसू ने जो कुछ बताया, सुनकर धन्ना खुशी से उठ खड़ा हो गया, और बोला, ‘चलो, मेरे घर चलो, पहले मुँह मीठा करो|’
घीसू के लाख मना करने पर भी धन्ना उसके हाथ में गुड़ और पानी पकड़ा दिया, और कहा, ‘घीसू, हमलोग ससुर बनने जा रहे हैं|
घीसू भी नहले पर दहला रखते हुए तपाक से बोल पड़ा, और शीघ्र दादा भी|
बिरजू का नीतू से विवाह हुए लगभग दो साल हो चुके थे, लेकिन नीतू ससुराल वालों के साथ जुड़ न सकी थी| उसका स्नेह, सास-ससुर के साथ ऊपर ही ऊपर था, गहराइयों में वह ससुरालवालों से बिल्कुल अलग थी| वह भोग-विलास की वस्तु को जीवन की सबसे मूल्यवान वस्तु समझती थी| यही कारण था कि, वह सोते-जागते इसे अपने हृदय से लगाये रखती थी| घर के कामों में उसका जी नहीं लगता था| वह चाहती थी कि सास-ननदें घर का काम-काज करें तो अच्छा| कभी खाना बनाना पड़ता था, तो उसके लिए वह दिन भर रूठी रहती थी| सास के घर पर रहते हुए वह एक प्रकार की घर-स्वामिनी हो गई थी| पति बिरजू उसे लाख समझाने की कोशिश करता, अपने सिद्धान्तों को लम्बी से लम्बी डोरी देता, पर नीतू इसे उसकी दुर्बलता समझकर ठुकरा देती थी| वह सास-ससुर ही नहीं, पति को भी दया-भाव से देखती थी| नीतू का बिरजू के परिवार के साथ दूध और पानी का नहीं, बल्कि रेत और पानी का मेल था, जो एक क्षण के लिए मिलकर फ़िर अलग हो जाता था|
एक दिन तो नीतू हद ही कर दी| उसने अपने पति से कहा, ‘बिरजू, तुमको हम दोनों में से किन्हीं एक को चुनना है| बिरजू अचंभित हो पूछा, ‘वह क्या है?
नीतू तिरस्कार भरी नजरों से सास-ससुर की ओर देखती हुई बोली, ‘उन्हें या मुझको?
बिरजू सगर्व होकर, उच्च स्वर में बोल पड़ा, ‘वे लोग मेरे जन्मदाता हैं, उन दोनों की जरूरत तुमको नहीं है, लेकिन उन्हें तो हमारी जरूरत है| इस उम्र में जब उन्हें सहारा चाहिये, तब मैं उन्हें बेसहारा छोड़ दूँ, यह नहीं हो सकता|
पति की बातों को सुनते ही नीतू का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया, और वह अपने स्वर में कर्कशता लाती हुई बोली, ‘कोई बात नहीं, उन्हें नहीं छोड़ सकते, मत छोड़ो, मैं तो तुमको छोड़ सकती हूँ| इतना बोलकर नीतू अपने कमरे में चली गई और रुपयों से भरी थैली के साथ अपने दुध-मुँहे बच्चे को गोद में लेकर उन्माद की दशा में, घर से निकल गई| जाते-जाते कह गई, ‘मैं तो समझती थी, कि तुम पर मेरा और सिर्फ़ मेरा अधिकार है: अब मालूम हुआ कि तुम पर तो मोहल्ले और गाँव तक का अधिकार है| इतने जिम्मेदार आदमी के साथ मैं नहीं रह सकती| बिरजू के पिता धन्नालाल, अपनी मनस्वी तेजस्विता के अभिमान के साथ सब कुछ देखता रहा; लेकिन जीवन से परास्त धन्नालाल शीघ्र ही धैर्य खो दिया| वह दौड़कर बहू के पास गया और हाथ जोड़कर कहा-बहू वापस चलो| जैसा तुम चाहती हो, वैसा ही होगा| नीतू तब चुप रही, कुछ जवाब नहीं दी, लेकिन मन ही मन धन्नालाल की बातें उसे न्याय-संगत लगी| वह एक-दो बार ना की, फ़िर तुरंत घर वापस लौट आई|
धन्नालाल और उसकी पत्नी ने, जीवन में बहू का सुख नहीं जाना था, इसलिए छोटी बहू से काफ़ी कुछ आशाएँ लिये जी रहे थे| फ़िर भी दोनों अपनी आशाओं को टूटते देख, विचलित नहीं हुए; बल्कि यह कहकर संतोष कर लिये, कि तकदीर से ज्यादा और कम, आज तक किसी को नहीं मिला, तो फ़िर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं? मगर पिता होने के नाते हमें इस बात का मलाल रहेगा कि हमने जिस पुत्र को जनम दिया, पाला-पोषा, पढ़ाया-लिखाया, विवाह दिया, सारी गृहस्थी बनाई और आज जब उसकी छाँह में बैठने की बात आई, तब हमें अपने ही घर से बेटा-बहू ने, दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर फ़ेंक दिया|
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