Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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देख जग ललचा

 


देख जग ललचा



जीवन वन का  यौवन घट, जब

शून्य दिशि  से  मैं भर  लायी

तब देख जग ललचा , पूछा

अरि वो निर्धन सुकुमारी,चिर अतृप्त

उद्भ्रांत  महोदधि  जीवन  था  तेरा

ये  रंगों  की  आकुल  तरंग, तुझमें

किसने  भरा ,इसे  तू  कहाँ पाई री


किसने तेरे कमल नयन  में

बुन - बुनकर  अंजन  को  सजाया

किसनेतेरे गौरअंगको

सोने के पानी सेनहलाया

जो  सौरभ  की  साँसें , तुझ पर 

लुट – लुट  जातीं, झिप- झिप आँखें

कहतीं, नर को रस भरी वेदनाओं में

डुबोने वाली स्वर्ग सुधे ,तू क्या है री


लपक - लपक कर  आवेशों  की

लपकें लपटोंपरउठ  जातीं

शिराओं  में  यौवनभर आता

कौन झील, कैसा  वहाँ का पानी री

जहाँ  खिला  यह स्वर्ण  कमल

कुछ तो बता हमसे,प्राण परिधि को

भंग कर धरा पर, विचरने वाली री





तेरी  दृष्टि  जिस  ओर गई ,सरिता

समुद्र ,गिरि सभी हो गये पानी-पानी

हिंस्र मानव के कर से,गिर गया वाण

तू ढ़ली अंधकार में ,दीपक–सी जलती

नींद  में  तू  शीतल मेघ  है  री


अरि  वो  नर  स्वप्नों  का सारथी

तेरे सम्मुख लौहकड़ी भी वृथा है री

तेरा आरती करने नर, मौतखाने में 

भी तुझकोजाकर ढूँढ़ता

तेरे  रूप  तले  जीवन भर जलता

फ़िर  भी न निकल पाता ,बेदाग री


राजा - रंक, अमीर-फ़कीर , सभी तुझको

यश, मान  का  मुकुट पहनाकर, अपनी

बाँहों  में  उठाकर तुझे दुलराना चाहता

जप - तप  तुझ  पर करता निस्सार री

धरती के  सारे चराचर तुझ पर मरते

तू दिन की ज्योति,सुबह की मुस्कान री


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