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Dr. Srimati Tara Singh
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धन्ना सेठ

 

धन्ना सेठ


         पौष का महीना था, शिवटहल के झोपड़े के बाहर अलाव जल रहा था| पास-पड़ोस के कई लोग वहाँ बैठे, अपने दुःख-सुख की बातें बतिया रहे थे| भीतर झोपड़े में शिवटहल, दिन भर का थका-मांदा रात-ठंढ से बचने के लिए, एक ढिबरी की रोशनी में बैठकर अपना कम्बल सिल रहे थे| तभी पत्नी शीला, रोटी बनाने के लिए आटा गूंधती हुई आवाज ऊँची में बोली---- क्या जी, धन्ना के बाबू! कम्बल सिला हो गया? मुझे ढिबरी चाहिए|

शिवटहल, विद्रोह भरे मन से बोले---- क्यों, क्या बात है? एक जगह सिलना हो तब तो, यहाँ तो कहाँ-कहाँ सिलूँ, यही समझ में नहीं आ रहा है|

शीला, रक्तभरी दृष्टि से देखकर कही---- रोटी बनानी है, और क्या, अपनी चिता तो सुलगानी है नहीं, नहीं तो कुप्पी की क्या जरूरत, वो तो अंधेरे में ही जलती|

पत्नी की बात सुनकर, शिवटहल का चेहरा लाल हो गया, बोला---- कितनी बार तुमसे कहा, एक और ढिबरी का इंतजाम कर लो, लेकिन तुम हो कि ----|

शीला, शिवटहल की बात सुनकर क्रोधित हो उठी, और उत्तेजित कंठ से बोली---- एक ढिबरी का तेल तो जुरा नहीं पाते, आये हैं दूसरी की बात करने! 

पत्नी की बात सुनकर, शिवटहल अभिमान भरी हँसी के साथ कहा---- क्यों नहीं जुटता, अब भी तुमको अभाव दीखता है, जब कि बेटा तुम्हारा, धन्ना सेठ? 

पति की बात सुनकर, शीला तैश में आ गई, और रोती हुई, आहत अभिमान से पूछी---- मैं धन्ना सेठ की माँ हूँ, तो तुम पिता हो; फिर क्यों अपने फटे-चिटे कम्बल को सिलते हुए कल्पित हो रहे हो| फेंक दो इसे और ले आओ नया| 

शिवटहल एक अच्छे निशानेबाज की तरह, मन को साधकर बोले---- शीला! कोई पिता अपने ही गरीब बेटे को धन्ना सेठ कहे, सोचो वह खुद को कितना मजबूर पाया होगा| मगर क्या करूँ? तुम कान धरकर धन्ना की बात सुनो| अलाव ताप रहे लोगों से वह खुद को किस तरह धन्ना सेठ की गिनती में खडा कर रहा है? कह रहा है---- ‘मैं जब भी घर बनवाऊँगा, वह इतना स्वच्छ और फिसलन भरा होगा, जिस पर मखियाँ भी बैठे, तो फिसल जायें| मानो वह, हवेली छोड़कर सब कुछ हासिल कर चुका है, अब किसी चीज की उसे जरूरत नहीं| यहाँ तक कि महादेव भी आकर पूछे---- माँगो, तुमको क्या चाहिए, तो वह मुँह फेर लेगा, और कहेगा---- महादेव किसी और के पास जाइये, मुझे कुछ नहीं चाहिए|

शीला डबडबाई आँखों से शिवटहल की और देखी, बोली---- वह दिवास्वप्न देखने लगा है| उसकी हालत उस पथिक की तरह है, जो घर का रास्ता भूल गया हो| उसका ह्रदय यह सब कल्पना आनन्द से नहीं, बल्कि एक अव्यक्त भय से काँप रहा है, तभी महीने के तिस दिन और दिन के चौब्बिस घंटे, यही स्वप्न देखने में धन्ना का कटता है|

उसे समझाते क्यों नही, बताते क्यों नहीं कि आँखें बंद कर लेने से अंधेरा भाग नहीं जाता, ज्यों का त्यों बना रहता है| इसलिए आँखें खोलकर रहो!

शिवटहल, चिंता व्यक्त करते हुए बोले---- शीला! सच तो यह है कि जब भी मैंने उसे समझाने की कोशिश की है, वह अपनी वाक्य-पटुता से मुझे निरुत्तर कर देता है| कहता है---- बाबू! तुम्हीं बताओ, संसार में कौन प्राणी है जो, स्वार्थ के लिए अपनी आत्मा का हनन नहीं करता है| जब संसार की यही प्रथा है, तो मैं कौन होता हूँ, इसका तिरस्कार करनेवाला? कम से कम ऐसा कर, मैं तो ईश्वर के आचरण को कलंकित नहीं करूँगा|

शिवटहल की बातों को सुनकर शीला, वहीँ भूमि पर बैठ गई, और रोती हुई बोली---- तो इस निठल्ले का अत्याचार हमें इसलिये सहना होगा, कि हमने उसे जन्म दिया है; पाला है, बड़ा किया है?

शिवटहल ने कठोर शब्दों में कहा---- नहीं शीला, ‘कोई जरूरत नहीं’ माता-पिता से अपना स्नेह बंधन, वह कब का तोड़ चुका है|

शीला को पति की बातें तथ्यहीन मालूम पड़ीं, उसे शिवटहल की बातों से इतना आघात पहुंचा, मानो ह्रदय में छेद हो गया हो| उसने रोते हुए, आहत कंठ से कहा ----- शिवटहल! क्रोध को दुर्वचनों से विशेष रूचि होती है| इसलिए अपने क्रोध को त्याग दो| आखिरकार, वह हमारी अपनी सन्तान है, उसे समझाओ, उससे कहो| आदमी का महत्वाकांक्षी होना जायज है, जुर्म नहीं, मगर तुम अपने पुरुषार्थ से, अपनी मेहनत से, अपने सदुपयोग से उन्हें पूरा कर सको, तो क्या कहना? लेकिन नीयत खोटी करके, आत्मा को पतित करके, अपनी आकांक्षा को रंगीन करना, पाप है| हो सकता है, परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान धन्ना को , उसकी कर्तव्यहीनता से अवगत करा सके|

पत्नी की सलाह पर, एक दिन शिवटहल, धन्ना को अपने पास बुलाये, और अपनी 

छाती से लगाकर पीड़ित स्वर में बोले ---- बेटा! यह जीवन सपाट समतल मैदान नहीं है, इसमें कहीं-कहीं गढ़े-खड्डे भी हैं| इस गढे को जो खुद के हुनर से पार कर गया, वह विजयी है| जो दूसरों के कंधे पर चढ़कर पार किया, वह ख़ाक विजयी कहलायेगा| मगर इसके लिए कड़ी मेहनत, और निष्ठा की जरुरत पड़ती है, जो कि तुममें है, बस जरुरत है ,कोशिश करने की, न कि आनन्द कल्पनाओं में फिसलकर डूब मरने के भय से ,तुमने इन्हें अपने मन में आश्रय नहीं दिया और अपने चंचल मन को खाली इधर-उधर भटकने छोड़ दिया| जिसके कारण ऊँची- ऊँची मगर काल्पनिक उड़ान भरने लगा, जिसमें बैठकर तुम वास्तविक संसार से, कल्पना के संसार में पहुँच गए हो| यहाँ पहुँचकर तुम्हारी दशा उस बालक सी हो गई है, जो नस्तर की क्षणिक पीड़ा न सहकर उसके फूटने, नासूर पड़ने, कदाचित प्राणांत हो जाने के भय को भूल गया हो| 

              बेटा! मेरा मानना है कि दुनियावाले धन को जितना महत्त्व दे रखे हैं, उतना महत्त्व उसमें है नहीं| दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है | इसलिए सम्मानीय होने के लिए, खुद में कर्मठता और वह योग्यता लाओ कि लोग भय से नहीं, दिल से तुम्हारा सम्मान करें|

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