धरती का चेहरा काला था
--डा० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई
जिस धरा को हम कहते हैं ,स्वर्गखंड
यहाँ न पहले पल्लव का मर्मर था
न ही था यहाँ,बाल-विहगों का कुंजन
ज्योति भूमि, क्षुधाहारिणी, कल्याणी
धरती का चेहरा, भूतों सा काला था
और था अथाह विवशता का सूनापन
दैव दया से एक दिन, युगों की-
जड़ता को हरने, काल तमस व्यवधान
को चीरकर, सोई धरती से लिपट
जगाने,सूरज से टूटकर एक कण गिरा
धरती के स्तब्ध हृदय में स्पंदन हुआ
हवा चली ,बादल गरजा,सागर लहराया
धीरे- धीरे सागर जल में छाली सी
मिट्टी की परत जमी ,फ़िर भू बना
सृष्टि बीज अंकुरित, प्रफ़ुल्लित हुआ
ज्योति नीड़ के विहग जगे,धूप-छाया से
मिल धरती का कण-कण कुसुमित हुआ
समय , दिनकाल के साथ - साथ
शिशिर ,धूप , वर्षा में , छाया के
निखिल साधन सम्पन्न हुये
सूने गिरिपथ में श्रीनाद की ध्वनि उठी
समय, सागर के उत्ताल लहर के
तूफ़ां से टकराने, पुष्ट देह, बलवान
भुजा , रूखा चेहरा वाला नर आया
मगर हृदय के गुह्य अंधकार में बैठी
आकांक्षा की लहरी ,दुख नटिनी से जा
कब टकरायी,मूक मनुज जान न सका
न ही नियति से कभी पूछ पाया
बहुकाल बाद वाणी का आशीर्वाद मिला
मूक मनुज की जिह्वा हिली,भाषा बनी
भाषा के शब्दों को श्लोकों में बाँधा
फ़िर देख जुही की नम्र डाली, उसका
जी ललचाया ,चाहत की आस लिये
मंदिर में गया,देवों के आगे गिरगिराया
कहा, मेरे दुख-पीड़ा को बाँटनेवाला
यहाँ कोई नहीं,कैसे होगा मेरा गुजारा
तब स्वयं प्रकृति,नारी का रूप लेकर
धरा पर उतरी, दीप्त हो उठी दिशा
प्रेम- सुधा, सलिल की धारा बही
जिसमें डूब गया, नभ कूल किनारा
इस प्रकार महेन्द्र आकर अपने
किरणों से त्रिभुवन का तम हर रहा
मनुज मन के अंतर्लोचन में
आभादेही श्रद्धा का आविर्भाव हुआ
तब से आशीष और रश्मि
का होता आ रहा यहाँ मिलन
जिसे हम कहते हैं , स्वर्गखंड
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