दिन का बादल निशितम में आकर
प्रिये ! नींद से जागो ,उठो ,आँगन में आओ
देखो ! कैसे दिन का बादल निशितम में आकर
शून्यता के छिन्न आँचल से छन-छन कर
तृण तरुओं को उज्ज्वल करने, शत -शत
भ्रमर की मिश्रित ध्वनि –सा झड़ता जा रहा
मानो लग रहा,रोग-शोक शयित धरा मानव की
आत्मा के दग्ध नाद को , जो हर क्षण
पवन में , अग्नि ज्वाल बन लहरा रहा
उसे सुनकर उस अग्यात जगत के स्वामी का
हृदय सिंहासन डोल गया , तभी अपनी
प्रीति स्रावित बाँहों में ,धरा मनुज को भरने
वह, मत्त तुरंगों से उड़, स्वरों का जाल गूँथ
बरसाती ऐश्वर्य ज्वार बन धरती पर उतर रहा
देखो अब तक भयंकरता के प्रीति पाश में
बँधकर ,जो झींगुर अपने स्वर की तीक्ष्ण
धार से निस्सीमता को था चीर रहा
होकर विस्मय विमूढ़ जाने कहाँ, किस
अतल गह्वर में जाकर छिप गया
लगता, निश्चय ही वह यहीं कहीं, बनकर
स्नेह प्रतिमा की मूर्ति,दमक रही आनन में
जो कर्पूर धूलि,उसे दो नयनों से निहार रहा
लगता वह जान गया,किसी ने बता दिया
फ़ूलों से जो झड़ रहे, गगन से धरा पर
उसी अग्यात जगत के स्वामी का दिव्य
चरण है, जिसने यह संसार बनाया
तभी बारिस का ठोप,कुंतल सा दमक रहा
लगता है प्रिये ! हर तरफ़ उसी का रूप है
उसी के रूप का साया तारापथ में भी लहरा रहा
ऊपर जो शून्य सा दीख रहा, आँखों का
शून्य नहीं है,वहाँ हर ची्ज,आकार में है पची हुई
तभी निशीथ की नग्न वेदना, दिन का
दम्य दुरास, अमरता को पा इठला रहा
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