“दीपाबली”
मेरे मकान के ठीक सामने,जिस विशालकाय खंडहर को लोग आज भूत-बंगला के नाम से जानते हैं, कभी वहाँ भरा-पूरा एक सिंहली परिवार रहा करते थे। ईश्वर ही जाने, उनके पास इतने पैसे कहाँ से आते थे, जो सालो भर कभी कृष्ण लीला, कभी रामायण कथा, तो कभी कंगालियों को भोजन कराना; कुछ न कुछ उनको बहाना चाहिये था ,पैसे पानी की तरह पैसे बहा दिया करते थे। उनका श्यामल, गठीला शरीर, कुंचित केश, तीक्ष्ण दृष्टि, सिंहली विशेषता से पूर्ण विनयी मधुर वाणी, लोगों के दिलों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था।
उनका परिवार बहुत बड़ा नहीं था, उँगलियों पर गिनकर छ: जने थे; पति-पत्नी, माता-पिता. और एक बेटी,एक बेटा। मुझे याद है, उनकी एकलौती बेटी की शादी में मैं शामिल हुआ था। कोलकाता से बैंड पार्टी, मिठाइयाँ, फ़ूल मँगवाये गये थे। हजारों की भीड़ थी। लड़के (दुल्हा) के सेहरा में हीरे-मोती जड़े थे। मैंने देखा था, वर के हाथ पर कन्या की पीली हथेली, उसके ऊपर जलधारा पड़ रही थी। साथ में विजय दर्प भरा दुल्हा भी शादी से जुड़े सैंकड़ों उलझनों के बावजूद मालती की लता की तरह आनंद की छाया और आलिंगन का प्रणय-सुरभि ढ़ाल रहे थे। मैं अपनी नील पुतली से, शांत सरोवर की तरह आँखें झुकाये बैठा, वर की आँखों में झांका, तो लगा,उनकी मांसल पीन भुजायें, मूर्ति सुलभ रमणी को आलिंगन करने तड़फ़ड़ा रही है। लेकिन आत्म गौरव का दुर्ग इस सहज वासना को वहाँ फ़टकने नहीं दे रहा था, जिसके कारण, इस पवित्र प्रतिमा के सामने उनकी इच्छा की पराजय हो रही थी। वे खिन्न, विचलित हुए जा रहे थे। उन्हें वासना की प्रचंड लपट चैन की साँस नहीं लेने दे रही थी। इसलिए वे उठकर बाहर चले गये और प्रत्यक्ष सत्य को झुठलाने की असफ़ल कोशिश करते हुए, अपने दोस्तों से गप्पें लड़ाने लगे। मैं एक मूक-बधिर दार्शनिक की तरह, उनके मन की चंचलता को खड़ा निहारता रहा। दूसरे सुबह, बेटी का रुख़सत समारोह भी अद्भुत था। रत्नों के आभूषण तथा स्वर्ण-पात्रों के अतिरिक्त,बेटी की प्रिय वस्तु मणि-निर्मित कान का झुमका, कंगन आदि अनेकों सामान दहेज में देने के लिए आँगन में प्रदर्शनी की तरह सजा दिये गये। हर आने-जाने वाले लोग, जिसे देखकर दाँतों तले उँगली चबाने के लिए बाध्य हो जाते थे। मेरे लिए यह शादी, उम्र भर के लिए गल्प करने का एक प्रधान उपकरण था।
उनके घर की दीपावली, तो आज भी लोग याद कर, ’सी” कर उठते हैं। पूरे गाँव के लोग उनके घर की दिवाली, इकट्ठा होकर देखने जाया करते थे। वीणा, वंशी और मृदंद की स्निग्ध गंभीर ध्वनि, जब विखरती थी, लगता था, मधुवन में मोर नाच रहा हो। सुसज्जित कोष्ठ में मणि निर्मित दीपाधार की यंत्रमयी नर्तकी अपने नूपुरों की झंकार से सारे वातावरण को अपने रंग में रंग लेता था। हवेली में फ़ूलों की वर्षा होती थी, तो बाहर मेवे और रुपयों की।
मैं हर साल शहर से अपना गाँव ,हवेली की दीपावली देखने आया करता था। लेकिन एक बार मैंने जो कुछ देखा, मेरी कल्पना से परे है। जहाँ गाँव के गरीब-अमीर, सभी दिवाली मना रहे थे; वहीं उनकी हवेली अंधकार में गुम थी। मानो, वहाँ कोई रहते नहीं हों, सभी गाँव छोड़कर सदा के लिए चले गये हों, या फ़िर कोई अनहोनी हुई हो। अन्यथा, लाख-दो लाख रुपये तो हर साल दीपावली पर वे यूँ ही गरीबों को दान कर दिया करते थे। यही उदार नीति के कारण तो गाँव के छोटे-बड़े सभी उनको पुज्य समझते थे और गाँव वालों की यह भावना, सिंहली परिवार में एक गर्वमय सेवा का भाव प्रदीप्त करती है। यश और ऐश्वर्य के भार से सिंहली परिवार का सिर, क्या गरीब क्या अमीर, सबों के सामने झुका रहता था। कभी उनका किसी अन्य के साथ तर्क भी हुआ हो, ऐसा कभी नहीं था। मैंने निश्चित किया, हर दीपावली पर दरवार सी सजी रहनेवाली, इस हवेली के अंधेरे का कारण क्या है, इसका पता लगाना, केवल मेरे लिए ही नहीं, पूरे गाँव के लिये बेहद जरूरी है।
मैं डरता, सहमता हवेली पहुँचा और, सिंहली अंकल को आवाज दिया---- ’अंकल, अंकल!
कुछ ही मिनटों में सिंहली अंकल बाहर निकल कर मेरे पास आये। पहले तो मैंने उनके पाँव छूकर आशीर्वाद लिया; फ़िर इधर-उधर की बातें करते हुए अपनी मकसद की बात पर आ गया। मैंने पूछा---- अंकल! आज दीपावली है?
उन्होंने सजल आँखों से मेरी ओर देखते हुए, दीवार का सहारा लेकर वहीं धप्प से बैठ गये; फ़िर अपने अँगोछे से नेत्र पोछते हुए कहा---- हाँ, बेटा! आज दीपावली है।
मैं फ़िर सहमता हुआ पूछा---- लेकिन अंकल, ये अंधेरा, आप दीपावली नहीं मनायेंगे?
वे फ़फ़क पड़े और बोले---- मना तो रहा हूँ बेटा!
तभी उनका एक नौकर आकर मुझे इशारे से हवेली के एक कोने में ले गया और जो कुछ उसने बताया; सुनकर मेरे पाँव की जमीन खिसक गई। उसने कहा---- भैया जी! मालिक की एकलौती बेटी, दीपा दीदी---- उसकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि मैंने उसे रोकते हुए पूछा---- हाँ, हाँ; मैं तो उसकी शादी में आया था। क्या हुआ उसे?
नौकर ने सिसकता हुआ कहा---- पिछले साल, आज ही के दिन दीपा दीदी की बलि, उनके ससुराल वालों ने जहर खिलाकर दे दी, तब से इस हवेली में दीपावली नहीं मनती; क्योंकि आज का दिन इस हवेली के लोगों के लिए दीपावली का नहीं, दीपा-बलि का है। इस घटना के बाद वे लोग गाँव छोड़कर कहीं चले गये। मालिक, घर की चाबी मेरे पास छोड़ गये हैं। मैं भी कभी-कभार ही यहाँ आता हूँ।
मैंने चकित हो पूछा---- तब सेठ जी यहाँ कैसे?
नौकर आँसू पोछता हुआ बोला---- दीपा दीदी की आज बरसी है न, इसलिए।
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