दिशि-दिशि में उदासी भरी रहती
प्रिये ! कैसे बताऊँ,मुझ पर क्या- क्या
गुजर रहा, तुम्हारे जाने से उस पार
दिशि- दिशि में उदासी भरी रहती
झंझा झकोर गर्जन करता, तन जलता
मन गलता, विकलता से लिपटा अधर
अंतरतम की प्यास बुझने नहीं देता
प्राणों में घूमती मूर्च्छना सुस्कुमार
घिरता विषाद का तिमिर सघन
आँखों के आगे फ़ैलाये रखता अंधकार
एक पल भी प्राण को,त्राण नहीं मिलता
प्राणों का बंधन, अंतरग्नि में तपता रहता
साँझ आती, नित एक नई वेदना लेकर
सुबह करती आकर नित एक नया सवाल
कहती, अरे ओ ! तरुण तपस्वी , पूजा का
कनक दीप मरु में बैठ,तू क्यों जला रहा
मन की शिराएँ छिन्न – भिन्न दीख रही
क्यों निज तन पर,तेरा स्वाधिकार नहीं रहा
कौन है जो तुमको यहाँ अकेला छोड़ चला गया
किसके आत्मिक स्पर्श का, सुखभागी है तू
किसके संग बांधा था तू, जीवन का स्वर्णिम तार
जिसकी झंकार की वेदना के उन्नत शिखर से
लिपटी लता पदों से,यह भुवन तुझको लगता क्षार
देहरहित, रूप-वैभव की किस देवी से
लिपटकर तू आँखों का मोती लुटा रहा
रक्त पद्मपात्र में ,अनन्त यौवन की
मदिरा लिये अधर से अधर, देह से
देह , प्राण से प्राण मिलाना चाह रहा
अरे ! तू नहीं जानता, विस्मय के विविध
रंगों से भरकर जिसने इस जग को सजाया
मन के रंगों को आकार देना भूल गया
ऐसे भी दाह मात्र प्रेम नहीं होता ,यह
तो केवल रुधिर में ताप को उपजाता
जिससे तप्ताकाश सा जलता रहता जीवन मरु
लेने नहीं देता, तृषित प्राण को आकार
नियति नटि के अति भीषण अभिनय
की छाया में, मनुज जीता आया लाचार
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