सोहनलाल की जिंदगी में, ऐसा कोई दिन नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर, उसके हिस्से कुछ बचा हो । अपने फ़टेहाल जीवन से थका, परेशान सोहनलाल, आँखें बंद किये आँगन में खटिया पर लेटा हुआ था; तभी उसे चूडियों की झंकार सुनाई पडी । आंखें खोलकर देखा, तो सामने पत्नी, मालती खडी थी, जो अभी-अभी रसोई घर से रोटी बनाकर आई थी । उसका देह पसीने में पूरी तरह तर था, जिससे उसका वक्ष स्पष्ट दीख रहा था । साँसें ऐसी उठ-बैठ रही थीं, मानो मदिरा का प्याला छलकते-छलकते बच जा रहा हो । एक बार तो सोहनलाल का दिल कहा--- इसके पहले कि छलक जाये , इसे संभाल लो । उसने तत्क्षण मालती को अपनी बाँहों में भर लेने के लिए हाथ बढाया, पर उसी क्षण वापस भी खींच लिया । यह सब देखकर मालती पर मानो बज्र गिर गया । उसके आंसुओं के आवेग और कंठ-स्वर में घोर संग्राम होने लगा । वह काँपती हुई लहजे स्वर में कही --- आह ! मैं भी क्या विशाल आत्मा की पत्नी हूँ , जिनके ह्रदय से आत्मोद्धार और परमार्थ की सारी इच्छाएँ लुप्त हो गई हैं | पहले शक था, अब विदित हो गया कि, तुम्हारी पत्नी- भक्ति और आत्मसमर्पण सब तुम्हारी अभिष्ट-सिद्धि के मंत्र थे वरना तुम मेरे मर्यादाशील ह्रदय को इस कदर चोट नहीं पहुँचाते | सोहनलाल कई बार चाहा कि कह दूँ --- मालती ! तुम शराब और पानी में भेद नहीं जानती हो , पर उसकी जवान खुल न सकी | मगर मुखाकृति की भाव-भंगिमा से मालती को बता दिया कि मैं भी, तुम्हारी तरह अपने जीवन को चरम सीमा तक ले जाना चाहता हूँ | मगर भाँति-भाँति की चिताएँ मुझे बरबस रोक लेती हैं | मुझे माफ़ कर दो | पति की बात सुनते ही ,प्रेम की देवी मालती , क्रोध की मूर्ति बन बोली --- तुम्हारी चिंता और मेरी, दोनों अलग-अलग हैं क्या ? क्या मैं नहीं जानती , हमारे जीवन की आवश्यकताएँ घटते-घटते सन्यास की सीमा पार कर चुकी हैं । अभिलाषाओं का भवन बनने से पहले ही ढ़ह गया है । मगर इसका अर्थ यह नहीं होता कि, हमें अपनी भावुकता के फ़ेर में पड़कर अपने शारीरिक सुख और शांति का बलिदान देना चाहिए । यदि तुम कभी मेरे कहे पर निष्पक्ष विचार कर देखोगे, तब तुम मुझसे जरूर सहमत होवोगे, क्योंकि मैं जानती हूं ,मेरी तरह तुम भी, विचार के उपासक हो , पर भविष्य की सहज आशंका ने, जो पुरुषों की विशेषता है , तुममें ज्यादा ही सतर्कता भर दिया है |
पत्नी के निराशा में डूबे शब्द को सुनकर सोहनलाल की आंखों में आँसू तैर गया । उसने बडी आत्मीयता से कहा---- मालती, मैं जानता हूँ, तुम सारल्य,संतोष और सुविचार की तपोभूमि हो | त्याग और तपस्या में तुम मुझसे एक कदम आगे हो , तभी तुम इस दशा में भी खुश रह पाती हो , लेकिन इतनी निराशाओं का भार मैं नहीं उठा सकता ।
मालती, सोहनलाल को विश्वास दिलाती हुई कही ----तुम्हारे जैसे मुक्त आत्माओं के लिए यह अंधकारमय जीवन अनुकूल नहीं है । तुम्हारी दशा उस व्यापारी की है , जिनका सब कुछ जलमग्न हो गया है । मालती के इन शब्दों में जो इशारा था, सोहनलाल जैसे धीर-गंभीर प्राणी से छिपा न रह सका । वह समझ गया, मालती क्या चाहती है ,क्योंकि उसके भावों में माधुर्य का नाम तक नहीं है ? कदाचित मैं उसे वह सुख नहीं दे सका, जिसकी आशा लेकर वह मेरे घर आई थी । ऐसा कहते उसकी आँखें झुक गईं |
मालती विवाहकर जब सोहनलाल के घर आई, कुछ दिन तो बची-खुची सामग्रियाँ, रोटी –दाल की व्यवस्था बनी रही, लेकिन धीरे-धीरे यह द्वार बंद हो गया , और एक रूखे-सूखे पर कटने लगी । ज्यों वर्षा के बाद सूखा अखरता है, त्यों रोटी-दाल के बिना तृप्ति नहीं होती थी । रूखा भोजन कंठ से उतरता नहीं था, चिंता मन अंतर्मुखी हो जाता है | सोहनलाल भी घर के निर्जन कोने में चुपचाप मन-आनन्द के घोडे पर चढ़कर रईशों के मनोभावों का अनुभव करने बैठ जाता था । उसकी समस्त प्रवॄतियाँ लोक-परलोक की समस्त चिंतायें छोड जीवन का सुख भोगने में लिप्त हो जाती थीं । कभी-कभी तो इस क्षणिक आनन्द में मग्न होकर वह , इसे ही आत्मिक शांति समझने लगता था । परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान कर मालती के मन में क्रोध की जगह अब भय संचार होने लगा था |
एक दिन मालती, प्रार्थी दृष्टि से सोहन की ओर देखकर बोली ---- सोहन ! मैं जानती हूँ , प्रत्येक प्रवीण मन में आदर और सम्मान की एक क्षुधा होती है , जो पेट की क्षुधा से अधिक बड़ी होती है, होना भी चाहिये । यह हमारे आत्मविश्वास की एक मंजिल जो है , पर तुम भूल क्यों जाते हो कि हम गरीब हैं और गरीब का कोई मान-सम्मान नहीं होता । ऐसे में आदमी को अपने आत्मबल का सम्मान करते रहना चाहिये क्योंकि संसार में दुर्बल और दरिद्र होना पाप है |
सोहनलाल, दीनता के साथ दार्शनिक भी था , पर अभी तक उसके मन के भाव शिथिल नहीं हुए थे । उसने कंपित स्वर में कहा--- मालती, संसार में कम से कम एक आदमी जीवन-संगिनी के रूप में तो मुझे मिला, जो मेरे लिए जीवन तक देने को तैयार है । तुम से मिलने से पहले, स्त्रियों के प्रति मेरा ग्यान किताबों तक ही सीमित था , जिसमें स्त्रियों के विषय में प्राचीन और अर्वाचीन, प्राच्य और पाश्चात्य, सभी विद्वानों का एक ही मत था ; यह था कि स्त्री मायावी, आत्मिक उन्नति की बाधक, परमार्थ की विरोधिनी और वृत्तियों को कुमार्ग की ओर ले जाने वाली , हृदय को संकीर्ण बनाने वाली होती है । जानती हो मालती , सच मानो --- इन्हीं कारणों से मैं बहुत दिनों तक कुंवारा रह गया । किन्तु अब अनुभव बतलाता है , स्त्रियाँ सन्मार्ग की ओर ले जाने वाली , कर्त्तव्य , और सेवा के भाव को जागृत करने वाली भी होती हैं । काश कि मुझे स्त्री लक्षण के ये गुण भी, पहले से विदित रहता, तो आज हमारा बेटा 20 साल का होता । तब अपने विकारों पर मुझे जो आधिपत्य होता था, शायद किसी संयमी साधु के पास भी न हो ।
ज्यों-ज्यों सोहनलाल अपनी जीवन गाथा को आगे बढ़ा रहा था , त्यों-त्यों अपनी कायरता और बोदेपन पर झल्लाते चला जा रहा था । तभी गरूर सी गर्दन उठाई, मर्दाना हिम्मत लिये मालती, सोहनलाल के पास आई, बोली---- तुम मर्द भी कम नहीं होते, तुम चाहो तो हवा में किले बना सकते हो , धरती पर नाव चला सकते हो ; जरूरत है खुद पर विश्वास का, जो कि तुममें है । तुम गरीबी का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते थक चुके हो और जब कोई मनुष्य ,किसी थके हुए पथिक की भाँति अधीर होकर छाँव की ओर दौड़ता है , तब उसका ह्रदय विशुद्ध प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है | आत्माभिमान बढ़ जाता है और यह आत्माभिमान ,आशा की भाँति चिरंजीवी होती है | इसलिए मनुष्य को चाहिये कि अपने संघर्ष और संग्रामकाल में उदाशीनता न अपनाये क्योंकि आंतरिक पीड़ा की धधकती अग्नि की लपटों में , अंग-अंग धधकता रहता है , जो प्राणांतकारी होता है । इसमें त्याग, सेवा के उच्च आदर्श का पुतला भी क्षण में ढ़हकर गिर जाता है । इसलिए तुम पुरुष भी उतने ही श्रेष्ठ हो, जितना प्रकाश अंधेरे से ।
तभी ठंढे पवन का झोंका आया , खाट पर सो रहा भोला ( मालती और सोहन का छोटा बेटा ),जागकर उठ बैठा | रोते हुए अपने पिता ,सोहनलाल से कहा --- बाबू मुझे ठंढ लग रही है | लहू जमा देने वाली माघ के महीने की सर्दी थी , उस पर ओले की बारिश, हर जगह श्मशान की खामोशी थी । भोला चाहता था, सो जाऊँ, मगर तार-तार कम्बल, बारिश से मेहा हुआ पुवाल, सोने नहीं दे रहा था । उसने कहा ---मुझे कम्बल में ठंढ लग रही है , रजाई दो न । सुनकर सोहन की आँखें भर आईं । उसने अपने कलेजे के टुकडे को, अपने कलेजे से लगा लिया, और कहा--- कहाँ से रजाई लाऊँ ? तत्क्षण उत्तेजित हो कहा---मैं आपके कम्बल को अभी गरम कर देता हूँ । सोहनलाल, कम्बल में अपना मुँह छिपाकर अपनी साँसों से कम्बल को गरम करने लगा । तभी कमरे में मालती कदम रखी ; पति को ऐसा करते देख, उसकी आँखों से टप-टपकर आँसू बहने लगा । वह धीरे से आर्द्र हो बोली---- इस तरह साबूत कम्बल को गरम किया जा सकता है, तार-तार हुए को नहीं । इसलिए तुम व्यर्थ कोशिश छोड़ दो, कहती हुई उसने भोला को अपनी गोद में मींचकर, अपनी ममता के आँचल की रजाई ओढ़ा दी ।
माँ के शरीर की गर्मी पाते ही भोला सो गया , और मालती, खुद भी बैठी-बैठी सो गई । सोहनलाल , नजर उठाकर देखा तो ठंढ में सिमटी –सिकुड़ी मालती, उसे देवोचित प्रतीत हो रही थी | उसके ह्रदय में उत्कंठा हो रही थी , अपना सब कुछ इस देवी के चरणों पर न्यौछावर कर दूँ और बता दूँ ---- मालती, तुम केवल भोला की माँ तक नहीं, तुम मेरा रक्षक व मित्र भी हो ; जो पति-पत्नी बनकर रहने से ज्यादा सुखकर है । मेरी पूर्णता तुमसे है । यदि लोग पत्ते खाकर लाठी संभाल सकते हैं ; तो मैं रोटी खाकर भी घर न संभाल सकूँ ,ऐसे धनलिप्सा का सत्यानाश हो | इस वीरोचित पुकार ने मालती पर तत्क्षण असर किया । उसने आँखें खोली और घुटने के बल पति के सामने बैठ गई, बोली ---इसमें तुम्हारा दोष नहीं, दोष तो हमारे भाग्य का है |
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