Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दोष तो हमारे भाग्य का है

 

दोष तो हमारे भाग्य का है    

सोहनलाल की जिंदगी में, ऐसा कोई दिन नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर, उसके हिस्से कुछ बचा हो । अपने फ़टेहाल जीवन से थका, परेशान सोहनलाल, आँखें बंद किये आँगन में खटिया पर लेटा हुआ था; तभी उसे चूडियों की झंकार सुनाई पडी । आंखें खोलकर देखा, तो सामने पत्नी, मालती खडी थी, जो अभी-अभी रसोई घर से रोटी बनाकर आई थी । उसका देह पसीने में पूरी तरह तर था, जिससे उसका वक्ष स्पष्ट दीख रहा था । साँसें ऐसी उठ-बैठ रही थीं, मानो मदिरा का प्याला छलकते-छलकते बच जा रहा हो । एक बार तो सोहनलाल का दिल कहा, ‘इसके पहले कि छलक जाये, इसे संभाल लो । उसने तत्क्षण मालती को अपनी बाँहों में भर लेने के लिए हाथ बढाया, पर उसी क्षण वापस भी खींच लिया । यह सब देखकर मालती पर मानो बज्र गिर गया । उसके आंसुओं के आवेग और कंठ-स्वर में घोर संग्राम होने लगा । वह काँपती हुई लहजे स्वर में कही, ‘आह! मैं भी क्या विशाल आत्मा की पत्नी हूँ, जिनके ह्रदय से आत्मोद्धार और परमार्थ की सारी इच्छाएँ लुप्त हो गई हैं| पहले शक था, अब विदित हो गया कि, तुम्हारी पत्नी- भक्ति और आत्मसमर्पण सब तुम्हारी अभिष्ट-सिद्धि के मंत्र थे वरना तुम मेरे मर्यादाशील ह्रदय को इस कदर चोट नहीं पहुँचाते| सोहनलाल कई बार चाहा कि कह दूँ, ‘मालती ! तुम शराब और पानी में भेद नहीं जानती हो, पर उसकी जवान खुल न सकी| मगर मुखाकृति की भाव-भंगिमा से मालती को बता दिया कि मैं भी, तुम्हारी तरह अपने जीवन को चरम सीमा तक ले जाना चाहता हूँ| मगर भाँति-भाँति की चिताएँ मुझे बरबस रोक लेती हैं| मुझे माफ़ कर दो| पति की बात सुनते ही, प्रेम की देवी मालती, क्रोध की मूर्ति बन बोली, ‘ तुम्हारी चिंता और मेरी, दोनों अलग-अलग हैं क्या? क्या मैं नहीं जानती, हमारे जीवन की आवश्यकताएँ घटते-घटते सन्यास की सीमा पार कर चुकी हैं । अभिलाषाओं का भवन बनने से पहले ही ढ़ह गया है । मगर इसका अर्थ यह नहीं होता कि, हमें अपनी भावुकता के फ़ेर में पड़कर अपने शारीरिक सुख और शांति का बलिदान देना चाहिए । यदि तुम कभी मेरे कहे पर निष्पक्ष विचार कर देखोगे, तब तुम मुझसे जरूर सहमत होवोगे, क्योंकि मैं जानती हूं, मेरी तरह तुम भी, विचार के उपासक हो, पर भविष्य की सहज आशंका ने, जो पुरुषों की विशेषता है, तुममें ज्यादा ही सतर्कता भर दिया है|
पत्नी के निराशा में डूबे शब्द को सुनकर सोहनलाल की आंखों में आँसू तैर गया । उसने बडी आत्मीयता से कहा, ‘मालती, मैं जानता हूँ, तुम सारल्य, संतोष और सुविचार की तपोभूमि हो| त्याग और तपस्या में तुम मुझसे एक कदम आगे हो, तभी तुम इस दशा में भी खुश रह पाती हो, लेकिन इतनी निराशाओं का भार मैं नहीं उठा सकता ।
मालती, सोहनलाल को विश्वास दिलाती हुई कही, ‘तुम्हारे जैसे मुक्त आत्माओं के लिए यह अंधकारमय जीवन अनुकूल नहीं है । तुम्हारी दशा उस व्यापारी की है, जिनका सब कुछ जलमग्न हो गया है । मालती के इन शब्दों में जो इशारा था, सोहनलाल जैसे धीर-गंभीर प्राणी से छिपा न रह सका । वह समझ गया, मालती क्या चाहती है, क्योंकि उसके भावों में माधुर्य का नाम तक नहीं है? कदाचित मैं उसे वह सुख नहीं दे सका, जिसकी आशा लेकर वह मेरे घर आई थी । ऐसा कहते उसकी आँखें झुक गईं|
मालती विवाहकर जब सोहनलाल के घर आई, कुछ दिन तो बची-खुची सामग्रियाँ, रोटी –दाल की व्यवस्था बनी रही, लेकिन धीरे-धीरे यह द्वार बंद हो गया, और एक रूखे-सूखे पर कटने लगी । ज्यों वर्षा के बाद सूखा अखरता है, त्यों रोटी-दाल के बिना तृप्ति नहीं होती थी । रूखा भोजन कंठ से उतरता नहीं था, चिंता मन अंतर्मुखी हो जाता है| सोहनलाल भी घर के निर्जन कोने में चुपचाप मन-आनन्द के घोडे पर चढ़कर रईशों के मनोभावों का अनुभव करने बैठ जाता था । उसकी समस्त प्रवॄतियाँ लोक-परलोक की समस्त चिंतायें छोड जीवन का सुख भोगने में लिप्त हो जाती थीं । कभी-कभी तो इस क्षणिक आनन्द में मग्न होकर वह, इसे ही आत्मिक शांति समझने लगता था । परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान कर मालती के मन में क्रोध की जगह अब भय संचार होने लगा था|
एक दिन मालती, प्रार्थी दृष्टि से सोहन की ओर देखकर बोली, ‘सोहन! मैं जानती हूँ, प्रत्येक प्रवीण मन में आदर और सम्मान की एक क्षुधा होती है, जो पेट की क्षुधा से अधिक बड़ी होती है, होना भी चाहिये । यह हमारे आत्मविश्वास की एक मंजिल जो है, पर तुम भूल क्यों जाते हो कि हम गरीब हैं और गरीब का कोई मान-सम्मान नहीं होता । ऐसे में आदमी को अपने आत्मबल का सम्मान करते रहना चाहिये क्योंकि संसार में दुर्बल और दरिद्र होना पाप है|
सोहनलाल, दीनता के साथ दार्शनिक भी था, पर अभी तक उसके मन के भाव शिथिल नहीं हुए थे । उसने कंपित स्वर में कहा, ‘मालती, संसार में कम से कम एक आदमी जीवन-संगिनी के रूप में तो मुझे मिला, जो मेरे लिए जीवन तक देने को तैयार है । तुम से मिलने से पहले, स्त्रियों के प्रति मेरा ग्यान किताबों तक ही सीमित था, जिसमें स्त्रियों के विषय में प्राचीन और अर्वाचीन, प्राच्य और पाश्चात्य, सभी विद्वानों का एक ही मत था ; यह था कि स्त्री मायावी, आत्मिक उन्नति की बाधक, परमार्थ की विरोधिनी और वृत्तियों को कुमार्ग की ओर ले जाने वाली, हृदय को संकीर्ण बनाने वाली होती है । जानती हो मालती, सच मानो, ‘इन्हीं कारणों से मैं बहुत दिनों तक कुंवारा रह गया । किन्तु अब अनुभव बतलाता है, स्त्रियाँ सन्मार्ग की ओर ले जाने वाली, कर्त्तव्य, और सेवा के भाव को जागृत करने वाली भी होती हैं । काश कि मुझे स्त्री लक्षण के ये गुण भी, पहले से विदित रहता, तो आज हमारा बेटा 20 साल का होता । तब अपने विकारों पर मुझे जो आधिपत्य होता था, शायद किसी संयमी साधु के पास भी न हो ।
ज्यों-ज्यों सोहनलाल अपनी जीवन गाथा को आगे बढ़ा रहा था, त्यों-त्यों अपनी कायरता और बोदेपन पर झल्लाते चला जा रहा था । तभी गरूर सी गर्दन उठाई, मर्दाना हिम्मत लिये मालती, सोहनलाल के पास आई, बोली, ‘तुम मर्द भी कम नहीं होते, तुम चाहो तो हवा में किले बना सकते हो, धरती पर नाव चला सकते हो ; जरूरत है खुद पर विश्वास का, जो कि तुममें है । तुम गरीबी का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते थक चुके हो और जब कोई मनुष्य, किसी थके हुए पथिक की भाँति अधीर होकर छाँव की ओर दौड़ता है, तब उसका ह्रदय विशुद्ध प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है| आत्माभिमान बढ़ जाता है और यह आत्माभिमान, आशा की भाँति चिरंजीवी होती है| इसलिए मनुष्य को चाहिये कि अपने संघर्ष और संग्रामकाल में उदाशीनता न अपनाये क्योंकि आंतरिक पीड़ा की धधकती अग्नि की लपटों में, अंग-अंग धधकता रहता है, जो प्राणांतकारी होता है । इसमें त्याग, सेवा के उच्च आदर्श का पुतला भी क्षण में ढ़हकर गिर जाता है । इसलिए तुम पुरुष भी उतने ही श्रेष्ठ हो, जितना प्रकाश अंधेरे से ।
तभी ठंढे पवन का झोंका आया, खाट पर सो रहा भोला ( मालती और सोहन का छोटा बेटा ), जागकर उठ बैठा| रोते हुए अपने पिता, सोहनलाल से कहा, ‘बाबू मुझे ठंढ लग रही है| लहू जमा देने वाली माघ के महीने की सर्दी थी, उस पर ओले की बारिश, हर जगह श्मशान की खामोशी थी । भोला चाहता था, सो जाऊँ, मगर तार-तार कम्बल, बारिश से मेहा हुआ पुवाल, सोने नहीं दे रहा था । उसने कहा, ‘मुझे कम्बल में ठंढ लग रही है, रजाई दो न । सुनकर सोहन की आँखें भर आईं । उसने अपने कलेजे के टुकडे को, अपने कलेजे से लगा लिया, और कहा, ‘कहाँ से रजाई लाऊँ? तत्क्षण उत्तेजित हो कहा, ‘मैं आपके कम्बल को अभी गरम कर देता हूँ । सोहनलाल, कम्बल में अपना मुँह छिपाकर अपनी साँसों से कम्बल को गरम करने लगा । तभी कमरे में मालती कदम रखी ; पति को ऐसा करते देख, उसकी आँखों से टप-टपकर आँसू बहने लगा । वह धीरे से आर्द्र हो बोली, ‘इस तरह साबूत कम्बल को गरम किया जा सकता है, तार-तार हुए को नहीं । इसलिए तुम व्यर्थ कोशिश छोड़ दो, कहती हुई उसने भोला को अपनी गोद में मींचकर, अपनी ममता के आँचल की रजाई ओढ़ा दी ।
माँ के शरीर की गर्मी पाते ही भोला सो गया, और मालती, खुद भी बैठी-बैठी सो गई । सोहनलाल, नजर उठाकर देखा तो ठंढ में सिमटी –सिकुड़ी मालती, उसे देवोचित प्रतीत हो रही थी| उसके ह्रदय में उत्कंठा हो रही थी, अपना सब कुछ इस देवी के चरणों पर न्यौछावर कर दूँ और बता दूँ, ‘मालती, तुम केवल भोला की माँ तक नहीं, तुम मेरा रक्षक व मित्र भी हो ; जो पति-पत्नी बनकर रहने से ज्यादा सुखकर है । मेरी पूर्णता तुमसे है । यदि लोग पत्ते खाकर लाठी संभाल सकते हैं ; तो मैं रोटी खाकर भी घर न संभाल सकूँ, ऐसे धनलिप्सा का सत्यानाश हो| इस वीरोचित पुकार ने मालती पर तत्क्षण असर किया । उसने आँखें खोली और घुटने के बल पति के सामने बैठ गई, बोली, ‘इसमें तुम्हारा दोष नहीं, दोष तो हमारे भाग्य का है|



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