Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दूध का कर्ज

 

दूध का कर्ज

संध्या समय एक पेड़ के नीचे , एक तपस्वी की तरह गंगाराम थका , शांत ,परेशान बैठा हुआ था, मगर उसकी शांति में नैराश्य की वेदना भरी हुई थी | सागर की हिचकोले थी, आँखों में उमंगों और आशाओं का भष्म था | वह सोच रहा था ---‘भूखे रहने के दिन , मेरे तेवर मैले नहीं होते थे , मगर आज अपनी दरिद्रता कोई पाप नहीं, केवल सुख से जीवन व्यतीत करना , आदमी का ध्येय नहीं होना चाहिए | वे लोग मन-प्रतिष्ठा और कृति सुख-भोग में बिताये होते , तो आज हम उनका नाम भी नहीं जानते | उनके आत्म-बलिदान ने ही उन्हें अमर बनाया | हमारी प्रतिष्ठा , धन और विलास पर अवलंबित नहीं है | गंगाराम की चिंताओं की भांति नीचे, अपार-भयंकर गोमती बह रही थी | वह उठा और गोमती के किनारे जा बैठा | आकुल ह्रदय का जल-तरंगों से, बैठते ही प्रेम हो गया | शायद इसलिए कि लहरें भी उसी तरह व्याकुल, परेशान थीं |
अचानक उसके कानों में एक आवाज आई --- गंगाराम ! तुम यहाँ हो ? मैंने तुझे कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा |
गंगाराम, एक बार दरिद्र दृष्टि से उसकी तरफ देखा, तो उसके शरीर का रक्त प्रवाह रूक गया | वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और घिघियाते हुए कहा --- रामदेव , तुम्हारे ही पैसे लौटाने की बात सोच रहा था |
रामदेव गंभीर भाव से बोला--- तो चुका दो न , तुमको रोका किसने है ?
गंगाराम , रूंधते कंठ से कहा --- मुझे महीने-दो महीने का मोहलत दो; सूद समेत बकाया चुका दूँगा |
रामदेव जमीं पर थूककर कहा---- ये है तुम्हारे झूठ पर, तुमने दो महीने पहले भी यही कहा था, जो आज कह रहा है |
गंगाराम काँपते स्वर में बोला ----- आज के बाद फिर कोई दूसरा बहाना नहीं होगा | यह कहते गंगाराम की आँखें आर्द्र हो गईं | उसकी मातृ-स्मृति मानो अँधेरे में दीपक के समान , उसकी आकृति को शोभा प्रदान करने लगी | उसे प्रतीत हुआ , मानो उसकी माँ उससे पूछ रही हो , किस चीज का पैसा, कैसा उधार ?
गंगाराम भर्राई आवाज में कहा ----- माँ , तुम चिंता मत करो | इस साल किसी न किसी तरह सारे कर्ज चुका दूँगा | अपना न सही ,दूसरों के ही खेत में हो, मगर फसल अच्छी है | पक भी
गई हैं , काटने में दो सप्ताह का समय है | गेहूँ , जौ, चना ; इस बार सबके सब ठीक-ठाक हैं | निराशा भरे ह्रदय में आशा का आज भी स्थान शेष है |
माँ ने बिगड़कर कहा ---- मैं पूछ रही हूँ , किस चीज के पैसे ?
माँ ,गंगाराम का उत्तर सुन दुखित होकर बोली ----बेटा ! मैं पुराने- जमाने की आदमी हूँ , तुम्हारी इन नई-नई बातों को नहीं समझती |
गंगाराम ने श्रद्धाभाव से कहा ---- माँ , तुम्हारे दिए शरीर की आत्मा को प्राणदान , इसी रामदेव के दूध ने दिया | कुछ दिनों पहले मैं काफी जोर बीमार पड़ा था, बचने की कोई आशा नहीं थी | डॉ. ने दूध , घी, फल आदि के सेवन की सलाह दी | माँ मैं जानता हूँ कि कर्ज लेने जैसा बड़ा अपराध दूसरा नहीं होता; न इससे बड़ी दूसरी विपत्ति होती | जहाँ दो जून की रोटी का ठिकाना नहीं , वहाँ इतनी दामी खुराक , वो भी ऐसा आदमी जो सड़ी हुई कोठरियों में पशुओं की तरह जीवन काटता हो | लेकिन डॉ. ने कहा ---‘ अगर मैं उनकी सलाह नहीं माना, तो मृत्यु अतिशीघ्र संभावी है | पहले से क्या रोटी की समस्या कम थी , कि एक नई समस्या और आ कड़ी हो गई | मेरा दिल बैठ गया , फिर सोचा ---- ‘ ज्वर ही तो आता है, नीम-काढ़ा पीते रहने से शायद चला जाए , तभी पुरोहित जी आ गए | मेरी दशा देखकर , समाचार पूछा , और तुरंत खेतों में जाकर एक जड़ खोदकर लाये | उसे धोकर, सात दिनों तक काली मिर्च के साथ पीसकर पिलाए , लेकिन कोई असर नहीं आया | दिनोंदिन मैं और कमजोर होता चला गया’ | आख़िरकर एक दिन रामदेव के घर गया , अपना हाल बताया ; साथ ही विनती कर उससे कहा ---‘ मैं बीमार रहते-रहते काफी कमजोर हो गया हूँ | डॉ.ने कुछ दिन दूध सेवन का परामर्श दिया है ,बड़ी दया होगी, जो तुम आधा सेर दूध मुझे रोज दे सको | पहले तो वह उधार दूध देने के लिए तैयार नहीं हुआ, लेकिन मेरी हालत देखकर कहा--- ठीक है, दूध पहुँच जाएगा, लेकिन पैसे में किसी तरह का बहानाबाजी हुआ तो दूध बंद कर दूँगा , मैं राजी हो गया’ | वह दूध प्रतिदिन आधा सेर दे जाने लगा , लेकिन पैसे के अभाव में प्रथम महीने के दूध का दाम ,यह बोलकर नहीं दे सका कि ,मैं अभी चल-फिर नहीं सकता हूँ , दो महीने का मोहलत दो, गाँव का ही हूँ , घर यहाँ है, भागकर कहाँ जाऊँगा | अगर इस बीच मर गया, तब मेरा घर ले लेना | मेरी बात पर उसे विश्वास हो गया , वह दूध देता रहा | लेकिन चार महीने के बकाये के बाद ,उसने दूध देना बंद कर दिया | मेरी विनती, प्रार्थना का उस पर कुछ असर नहीं हुआ | मैंने भी खुशामद करना छोड़ दिया | इतना सोचकर कि मर जाऊँगा , इससे अधिक और क्या होगा ?
गंगाराम ने माँ की ओर कातर दृष्टि से देखा और फूट-फूटकर रोते हुए कहा ---माँ ! किसी भी प्राणी की आत्मा इस संसार में चिरकाल तक नहीं ठहरती , इसलिए मुझे यहाँ से जाना होगा | बेटे की बात सुनकर , माँ अधीर हो रुँधे कंठ से बोली --- मानव जीवन-इतिहास का यह प्रत्यक्ष सबूत है ,कि हम उस वातावरण में पलें , जहाँ ईश्वर राजा है, और पैसे वाले, उसके मंत्री ; बाकी बचे लोग अपनी आत्मा की ह्त्या इतनी बार करते हैं, वे खुद भी गिनती नहीं रख सकते | वे ज़िंदा तो रहते हैं , मगर लाश बनकर | बावजूद मैं सिद्धांत का समर्थक हूँ , इसलिए कहूँगी कि आदमी को जीते जी अपने वसूल को नहीं त्यागना चाहिए | तुम्हारे पास जिसका बकाया है, जब तक उसका चुकता नहीं कर देते , इस संसार को छोड़ना पाप है |
माँ की बातें सुनकर , गंगाराम की आँखें आर्द्र हो गईं , उसे माँ का मातृत्व स्नेह उस अँधेरे में मानो दीपक के समान ; उसकी चिंता ,जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगी | उसके मन में अतीत यौवन सचेत हो उठा | वह काँपता हुआ माँ की चरणों पर गिरकर रोता हुआ बोला ---- माँ ! जब तक रामदेव के दूध का पाई -पाई मैं चुकता नहीं कर देता ; तुमको वचन देता हूँ , मरूँगा नहीं | यम आयेगा , तो उसे भी पछाड़ कर भगा दूँगा , और नहीं भगा पाया तब विनती कर कहूँगा---- कुछ समय छोड़ दो, मुझे दूध का कर्ज चुकाना है |
गंगाराम साल भर तपस्या किया, जल्द से जल्द रुपया चुकाने का प्रण जो कर चुका था | रोटी की जगह सत्तू घोलकर दिन काटता था | कहने को फटा-चिटा एक धोती थी, वह भी प्रण की भेंट चढ़ चुकी थी | अब वह भी प्रकृति के न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो चुका था | बावजूद साल के अंत में इस ध्रुव -संकल्प का फल आशानुकूल नहीं निकले | रामदेव के कुल पाँच सौ रूपये देने थे | वहाँ वह सिर्फ चार सौ ही जमाकर सका, सोचा ---- ‘ रामदेव के घर जाकर इन पैसों को उसके चरण पर रखकर कहूँगा , रामदेव और थोड़ी मोहलत दो, मैं तुम्हारे बाकी पैसे भी चुका दूँगा | फिलहाल आधा सेर नहीं तो पाँव भर ही दूध देते, तो तुम्हारा बड़ा उपकार होता |
गंगाराम वैसा ही किया, जैसा सोचा था , पैसे लेकर रामदेव के घर गया | उसके आगे चार सौ रूपये रख दिया और हाथ जोड़कर कहा--- बाकी भी चुका दूँगा |
रामदेव विस्मित होकर पूछा ----- कब तक ?
गंगाराम ---- मैं मजदूरी कर जल्द ही चुका दूँगा |
रामदेव -----कितना लाये हो ?
गंगाराम ---- चार सौ | सिर्फ चार सौ , और उसपर दूध की माँग |
रामदेव की बात सुनकर, गंगाराम आशाहीन न होकर उदास हो गया | सोचने लगा --- ‘यह कर्ज तो चार महीने के दूध का है, जिसे मैं अपनी भेंट चढ़ाए बिना चुका नहीं पा रहा हूँ ; उस दूध के कर्ज को कैसे चुकाऊँगा , जो मेरा प्राण-रक्षक बनकर आज भी मेरे शरीर के नसों में लहू के रूप में दौड़ रहा है , मेरे जीवन-मन को सिंचन कर रहा है | गंगाराम की शांति-वृति कभी इतनी कठिन परीक्षा में न पड़ी थी , सो वह भीतर ही भीतर टूट गया |
गंगाराम शोकातिरेक दशा में चिल्ला पड़ा ---- माँ , तुम कहाँ हो ? तुम्हारा बेटा , जिस पर तुम प्राण देती थी, जिसे तुम जीवन का आधार समझती थी, आज घोर संकट में है | कौन प्राणी ऐसा निर्लज्ज होगा, जो इस दशा में भी जी रहा हो | कर्तव्य की वेदी पर मेरा अपना जीवन , और मेरी सारी कामनाएँ , भी रामदेव का कर्ज नहीं उतार सका | गंगाराम की दशा पंखहीन पक्षी की तरह हो रही थी , जो सर्प को अपनी ओर आता देख, उड़कर भागना चाहता तो था, पर उड़ नहीं पा रहा था ; केवल फड़-फड़ाकर रह जाता था |
तभी मर्दाने कमरे में किसी के खाँसने की आवाज आई,कहीं रामदेव तो नहीं ,सोच उसके चेहरे का रंग उड़ गया | वह पूछना चाहा --- ‘कौन हो ?’ मगर कंठ से आवाज नहीं निकली | हाथ-पैर काँप रहा था, सिर में चक्कर आने लगा | शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ गए | वह वहीँ कच्ची मिटटी के घड़े की तरह जमीं पर मुँह-भार लुढ़क गया | सर्द का मौसम था और शाम की वेला, वह अलाव जो उसने ठिठुरे हुए हाथों को सेंकने के लिए जला रखी थी , उसकी लौ उसकी धोती तक आ पहुँची | मगर उसके गुप्त रोदन की आवाज बाहर न निकल सकी , केवल आँसू बाहर निकलकर रह गया | कुछ देर बाद आस-परोस के लोगों को जब आग की उठती लपटें दिखाई पड़ीं , भागे आये | पहुँचकर देखा , गंगाराम का घर, गंगाराम का श्मशान बना हुआ है | उसका प्राण-पक्षी , कर्ज की नुकीली पंजों से लहूलुहान होकर,आग में झुलसकर अपने बसेरे की ओर उड़ चुका है , हड्डियों से चटक-चटककर निकल रही चिंगारियाँ ,ऊपर उछल-उछलकर ,कह रही हैं, ‘गंगाराम , राम को प्यारा हो गया’ ; भले ही दुनिया दुत्कारती रही |


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