Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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फ़कीरा

 

फ़कीरा

   पहाड़ों की गोद में, लता-वितानों से ढँका जगुआ का गाँव बड़ा ही मनोरम था। भाँति-भाँति के सुस्वादू फ़ल-फ़ूल वाले वृक्ष, पुष्प-शय्याओं का समारोह, पागल कर देने वाली सुगंध की लहरें, हृदय में चुभने वाली तरह-तरह की पक्षियों की आवाज, सब मिलाकर जगुआ का गाँव,एक निभृत रंगमंच की तरह दिखता था। लेकिन हरियाली से लदे इस गाँव के लोग बेहद गरीबी में जीवन-बसर करते थे। जंगलों से लकड़ियाँ काटकर उसे बाजार में ले जाकर बेचने के सिवा जीवनोपार्जन का और कोई दूसरा साधन नहीं था। गाँव के कुछ ही लोग ऐसे खुदनसीब थे जिन्हें पास के शहर में, रेलवे कारखाने में नौकरी मिली हुई थी। इनमें जगुआ के पिता जीवतराम एक थे। 

        वे सुबह के निकले रात आठ बजे घर लौटते थे। रविवार ही एक ऐसा दिन होता था, जब वे घर पर रहते थे। गृहस्थी का हर काम वे उसी दिन निबटारा करते थे। यहाँ तक कि जलावन की लकड़ियाँ भी उसी दिन वे खरीदा करते थे। एक दिन जगुआ मुँह अंधेरे,दरवाजे पर से दौड़ता हुआ आँगन में आया और अपने पिता जीवतराम से हाँफ़ते हुए कहा---- ’बाबू,बाबू! लकड़ीवाला बूढ़ा आया है; तुमको खोज रहा है। तुम जल्दी से दरवाजे पर चलो।’ यह सुनकर, पिता के बगल में बैठी जगुआ की माँ, अपने आपे से बाहर हो गई। उसने न आव देखा न ताव, जगुआ के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया; बोली---- ’कितनी बार मैंने तुमसे कहा, मुझे उस बूढ़े लकड़ीवाले से लकड़ी नहीं लेनी, तो फ़िर तू क्यों बाबू को बुलाने आया। जा, जाकर बोल दे, मेरे बाबू घर पर नहीं हैं। एक तो उसकी सबसे छोटी गठरी, उस पर दाम भी ज्यादा। क्यों? गाँव भर में, मैं ही एक मूर्ख हूँ, जो उससे लकड़ियाँ खरीदूँ। मुझे जब पूरे पैसे देने ही हैं, तब देख-सुनकर दूसरों से लूँगी, उसी से ही क्यों?

        जीवतराम को पत्नी का यह रवैया अच्छा नहीं लगा। उसने जगुआ की माँ से कहा— ’भाग्यवान! उससे लकड़ियाँ नहीं लेनी है तो मत लो, लेकिन तुमने इसे मारा क्यों? इसमें इसका क्या दोष है?’ जगुआ की माँ झुँझलाती हुई बोली---- दोष तो तुम्हारा भी नहीं है, दोष मेरा है जो मैं उस बूढ़े को अपने दरवाजे पर चढ़ने देती हूँ। नजर के सामने वह मुझे लूटता रहता है और मैं लूटी जाती रहती हूँ। आखिर ऐसा कब तक चलेगा? पत्नी की इन बेतुकी बातों से जीवतराम के दिल को इतना दर्द हुआ, शायद इससे ज्यादा दर्द खंजर चलाने से भी नहीं होता। उसने पत्नी की ओर देखते हुए हसरत भरे स्वर में कहा----- जगुआ की माँ! सुनो, मुझ पर एक एहसान करो, तुम चुप हो जाओ, बाहर वह सुन लेगा तो ठीक नहीं होगा। आखिर---- जगुआ की माँ,जीवतराम को ललकारती हुई---- आखिर क्या? वह तुम्हारा कोई रिश्तेदार लगता है, जो सुन लेगा तो तुम्हारी इज्जत खतम हो जायगी। 

जीवतराम---- क्या, अपना मान-सम्मान लोग सिर्फ़ रिश्तेदारों के लिये बनाकर रखते हैं? अरी! इज्जत तो आदमी का गहना होता है, जो हर किसी के पास नहीं होता। लेकिन भाग्यवान! तुम उसे बूढ़ा क्यों कहती हो, वह बूढ़ा नहीं है। गरीबी का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते वह असमय बूढ़ा हो गया है। वह मेरे ही उमर का है।

जगुआ की माँ,अपने स्वर में कठोरता लाती हुई बोली---- तुम इस तरह दावे के साथ बोल रहे हो, लगता उसे बचपन से जानते हो।

जीवतराम---ऐसा ही कुछ समझ लो। जानती हो,जगुआ की माँ! कभी वह मेरी तरह वर्कशोप में मिस्त्री था, लेकिन उसकी एक गलती, उसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। उसकी पूरी कहानी सुनोगी, तो तुमको दया भी आयेगी और गुस्सा भी। 

जगुआ की माँ, तिनककर कही-हाँ, वो भी बता ही डालो।

जीवतराम, व्यथित कंठ से कहना शुरू किया---- फ़कीरा शादी के बाद अपनी नई दुलहन के प्यार में इस कदर दीवाना हो गया था कि क्या अच्छा, क्या बुरा,वह सोच नहीं सकता था। तुम अभी जिस औरत (फ़कीरा की पत्नी) को बुझी आग की तरह ठंढ़ी देख रही हो, जवानी में यह बिजली थी, बिजली। इसे देखने मात्र से नौजवानों को करेंट लग जाता था और फ़कीरा को तो ऊपरवाले ने उपहार में पत्नी स्वरूप भेंट कर दिया था। वह अपने भाग्य पर इस कदर इतराने लगा था कि स्त्री-प्रेम को उसने अपना जीवन आधार मान लिया। शैय्या सेवन के सिवा उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। यहाँ तक कि एकमात्र जीविकोपार्जन का सहारा नौकरी भी नहीं। उसने वर्कशोप जाना छोड़ दिया। मैने कई बार उसे समझाया, कहा---- ’भूखे पेट खुदा को भी याद नहीं किया जा सकता। जिसके सिर रोजी-रोटी की फ़िक्र नहीं, वह प्यार का क्या खिदमत करेगा? और करेगा भी तो अमानत का खयानत करेगा। फ़िर जीवतराम एक लम्बी साँस लेकर विषाद भरे स्वर में बोला---- जानती हो, जगुआ की माँ! आखिरकार एक दिन उसकी नौकरी छूट गई; यूँ कहो, उसे नौकरी से निकाल दिया गया। उसके पास जो पहले की जमा-पूँजी थी,कुछ दिनों में वह सब भी खतम हो गया। पुरखों से मिली खेती की कुछ जमीन थी, उसे भी वह बेचकर खा गया। फ़िर घर बेचा, साइकिल बेचा और मवेशी भी बेच डाला। अब जंगल से काटकर लकड़ी बेचता है।

जगुआ की माँ---- सारा वृतान्त सुनने के बाद अचानक अपना आँचल संभालती हुई खड़ी हो गई।

जीवतराम ने पूछा---- कहाँ जा रही हो? उसने कहा---- लकड़ीवाले को देखकर ऐसा तो नहीं लगता कि वह स्त्री का दीवाना है। बातचीत से तो बड़ा शरीफ़ लगता है।

जीवतराम मुस्कुराकर बोला—विश्वास नहीं होता, तो अकेले में मिलकर आजमा लेना। 

जगुआ की माँ, झिझकती हुई कही---- बहुत हुआ, चलो उठो।

जीवतराम ने पूछा---- कहाँ जाना है? 

जगुआ की माँ---- लकड़ी खरीदने। वह कब से बाहर खड़ा-खड़ा तुम्हारा इंतजार कर रहा है।
 

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