गंगाजलि
वेदांतीय सिद्धांतों को मानने वाले, विभूति प्रसाद के अपने कोई संतान नहीं थे| मगर, उनके प्रेम वारि से मोहल्ले के बच्चे, अभिसिंचित रहते थे| एक दिन उनके घर एक बेटी जनम ली; बच्ची का मुखमंडल ऐसा दिव्य और ज्ञानमय था कि देखते ही उन्होंने पत्नी शोभा से कहा---- शोभा! इसे पाने के लिए मैंने कौन-कौन सी तपस्या नहीं की| मंदिर के चौकठ पर माथा टेका, गंगाघाट पर दीये जलाया, मज़ार पर चादर चढ़ाई और तो और, नित दश को खाना खिलाकर खुद खाया, तब जाकर यह ख़ुशी मेरे घर आई| उन्होंने बेटी को अपनी गोद में लेकर, उसके गुलाबी गालों को चूमते हुए कहा---- इसका नाम मैं गंगाजलि रखूँगा, क्योंकि यह हमदोनों के प्रेम नदी का गंगाजल है|
गंगाजलि के दिव्य मुखमंडल, पतले-पतले लाल-लाल होठ, काले-काले लम्बे घने बाल शीघ्र ही, वह पास-पड़ोस के लोगों की दुआ का हक़दार बन गई| देखते-देखते समय हवा की भाँति निकल गया, और वह नन्हीं जान चार साल की हो गई| उसे शहर के एक नामी स्कूल में दाखिला दिलवा दिया| स्कूल जाती-आती, कब गंगाजलि बड़ी होकर कालेज जाने लगी| विभूति प्रसाद को आभास भी नहीं मिला, उनके कानों में तो आज भी बेटी पैदा होने के उपलक्ष पर बजाई गई बधाई की मनभावन ध्वनि गूंज रही थी|
एक दिन विभूति प्रसाद ने देखा, गंगाजलि, लकड़ी की गुड़िया और खिलौने को एक पुराने कपडे में बाँधकर माँ को देती हुई कह रही है---- माँ! इसे किसी गरीब के बच्चे को दे देना|
उसकी माँ ने जब उसे पूछा----- क्यों?
गंगाजलि दबी जुबान में बोली----- अब मैं बड़ी हो गई, और ये सब पहले की तरह छोटे ही रह गये| अब इनके साथ खेलने का दिल नहीं करता| यह कहते हुए शोभा ने देखा कि जिस तरह कौमुदी लहराती है, उसी भाँति भीनी-भीनी मुस्कान गंगाजलि के अधरों पर लहरा रही है|
शोभा रसिक भाव से बोली----- आज बहुत इंतजार के बाद तुमने मेरी कल्पना-चित्रों पर से गर्द का पर्दा उठा दिया|
शाम को विभूति प्रसाद के घर लौटते ही, शोभा ने पति से दिन का पूरा वृतांत कह सुनाया| कहा----- क्या तुमने कभी गौर किया है कि गंगाजलि के जीवन रूपी वृक्ष में यौवन रूपी कोपलें फूटने लगीं हैं| अब देरी न कर उसके हाथ पीले करने की तैयारी करो|
पत्नी की बात सुनकर अचंभित हो विभूति प्रसाद, भर्राये आवाज में बोले| क्या बेटी
से तुम्हारा दिल भर गया? वह तो अभी हमारे घर आई है, वह अभी बच्ची है, जानती हो, शादी के बाद गृहस्थी का सारा भार घर की नारी पर होती, जिसे वह संभाल नहीं सकेगी| विभूति प्रसाद को प्रतिष्ठा और गौरव पर बड़ा अभिमान था| वे बड़े रसिक पुरुष थे| उनकी बातें हास्य से पूर्ण होती थी| उन्होंने कहा---- अच्छा तो ठीक है, देखेंगे; किसी बकड़े को ढूंढेंगे, आदमी तो मेरी बेटी बना ही लेगी|
पति की अनुचित बातों से रूठती हुई शोभा बोली----- तुम्हारे लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ रखा है| इस ओर कभी ध्यान दिया तुमने, जानते हो, अपने गाँव का भीमा है न, उसका बेटा कमलाचरण, जो न जाने कितनी बार कालेज में फेल कर चुका है, निकम्मा दिन भर मोटर साईकिल उड़ाते रहता है, और तुम्हारी लाड़ो, उसे छुप-छुपकर देखती रहती है| मेरी मानो, किसी कुलीन लड़के के साथ बुद्धिमान और शिक्षित देखकर उसकी शादी दे दो|
पत्नी शोभा का ‘कोई’ का संकेत धनेश्वर के बेटे, राधाचरण से था| विभूति प्रसाद बोले---- जिसकी उठी हुई बगुले की तरह गर्दन है| नहीं, मैं अपनी बेटी की शादी उस बगुले के साथ नहीं दे सकता| तुम्हारी नजर में कोई और हो तो बताना|
विभूति प्रसाद का इन दिनों बड़ी मलिन रहने लगे| सुबह का गया, शाम को घर लौटते, और पत्नी से बिना कुछ कहे सोने चले जाते| एक दिन धुँधले उजाले में कुम्हलाया हुआ बदन को देखकर, शोभा बोली---- इस तरह चिंतित, उदास रहने से लड़के वाले तरस खाकर तुम्हारे चौकठ पर आकर नाक रगड़ेगा, तो ऐसी सोच दिल से निकल दो, और राधाचरण जी के पिता किशोर जी से बात करो| विभूति प्रसाद द्रवित होकर बोले---- करना ही होगा| उसका हमारे घर रहना, और कितने दिनों तक संभव होगा| अब बेटी से अलग होने के दिन आ गए|
विभूति प्रसाद, मूंछें खड़ी कर बोले---- शोभा! तुम जिस बेटी की बुराई करती नहीं थकती; मैं उसकी तरफदारी करते नहीं थकता|
शोभा झूठा गुस्सा दिखाती हुई पूछी----- कैसे नहीं,तुमको उसमें कोई बुराई नहीं दीखती?
एक शाम विभूति प्रसाद, बेटी की शान में कसीदे पढ़ते हुए बोले---- जब हमलोग यहाँ, इस नई सोसायटी में रहने आये; पहले-पहल यहाँ का रहन-सहन, आचार-व्यवहार हमलोगों को कितना अनोखा लगता था| हमलोग तो इस सोसाइटी में मानो मोरों में कौवा लगते थे! उस समय मुझे गंगाजलि कि चातुर्य, बुद्धि ऐसा लगता था, मानो वह ज्ञान और प्रकाश की पुतलियाँ हो| मैं उसके साहस पर चकित रह जाता था| कभी-कभी अपने साथ मुझे भी चलने कहती थी, पर मैं लज्जावश जा नहीं सकता था| इसलिए मैं तो कहूँगा, कि गंगाजलि के लिये अपने खेदजनक अनुभव भूल जाओ| वह बिल्कुल नहीं बिगड़ी है| जहाँ जायेगी, एकछत्र राज करेगी| फिर मन को दुखी कर बोले, थोड़े दिन बाद वह ससुराल चली जायेगी, और वहाँ के वातावरण में रहते-रहते हम सब को भूल जाएगी; तब एक बार फिर से पहले की भाँति हमदोनों को घुंट-घुंटकर जीना होगा|
गंगाजलि का विवाह, राधाचरण से हुये दो साल हो चुके थे, मगर उसका स्नेह अपने माँ-बाप से कम नहीं हो पाया था| कहने को वह ससुराल में थी, पर उसकी आत्मा मैके में बसती थी| यही कारण था कि ससुराल वालों के साथ वह घुलमिल नहीं सकी| यद्यपि राधाचरण की माँ लाली देवी अपने घर के काम -काजों में उसे खींचने का प्रयास करती थी, अपने सिद्धांतों को लम्बी-लम्बी रस्सी देती थी|
पर गंगाजलि इसे उसकी दुर्बलता समझकर ठुकरा देती थी|
पति राधाचरण को गंगाजलि से कोई शिकायत नहीं थी| मगर उसकी माँ लाली देवी, बेटे को बहू के विरुद्ध उकसाने में ज़रा भी कोर कसर नहीं छोड़ती थी| कहती थी---- बेटा, मैं देख रही हूँ, कि बहू, तुम जैसे त्याग की मूर्ति की तरफ, सम्मान की दृष्टि से नहीं बल्कि दया-भाव से देखती है| मेरी छोडो, मैं कुछ बोलूँ, और उसके मनोनुकूल नहीं हो, तो जहर पीने दौड़ जाती है| कहती है, मेरा क्या धर्म और उसके निर्वाह की क्या रीति है, मैं भलीभाँति जानती हूँ| मुझे परिशिक्षण की जरूरत नहीं है|
राधाचरण, तुलसी चौरा पर दीपक रखते हुए कहा---- माँ, इसमें संदेह नहीं, कि तुम्हारी एक-एक शब्द सच है| उसकी धमनियों में रक्त की जगह अहंकार का संचार जान पड़ता है| तभी उसके बात-व्यवहार में स्नेह की सरलता नहीं दीखती है, बल्कि समय के साथ दिनोंदिन हमलोगों के प्रति उसकी नफरत, गुस्से में और प्रज्वलित होती जा रही है|
लीला देवी झल्लाकर कही---- उससे पूछ लो, कहाँ रहना चाहती है? यहाँ रहना है, तो बहू बनकर रहना होगा, और अगर यह संभव नहीं है, तो अपने मैके चली जाये| दिन भर पड़ोसियों के साथ गप्पे मारती रहती है| वो क्या समझती है, कि पति की आड़ में सब कुछ जायज है, तो ऐसा मेरे जीते जी नहीं होगा|
दूर मूर्तिवत खड़ी, गंगाजलि, अपनी सास की बात सुनकर भाव शिथिल कंपित स्वर में बोली---- माँजी! मेरी बदनामी तो जितनी होनी थी, हो चुकी, अब भी कुछ बचा है, तो इस विषय में ऐसा संदेह करना सर्वथा निर्मूल होगा, और तत्क्षण पति-धन आश्रय छोड़कर, खाली हाथ अपने माता-पिता के पास लौट आई|
गंगाजलि का इस तरह लौट आना, विभूति प्रसाद जैसे आदमी, जो सदैव सर्व सम्मानित रहा हो, जो सदा आत्म-सम्मान से सर उठाकर चलता रहा हो, जिसकी सुकृति की सारे शहर में चर्चा होती रही हो, वे सह न सके| भला वह इतना बड़ा अपमान सहते भी कैसे?
लेकिन कहते है न, कि पत्थर की तह में पानी रहता है| उनके ह्रदय की नाराजगी पसीज कर पानी बन आँखों से निकलने लगा| वे गंगाजलि के कमरे में गए, समीप जाकर देखे---- गंगाजलि के बाल बिखरे हुए हैं; आँखों से आंसू बह रहे हैं| विभूति प्रसाद बेटी को मींचकर अपनी छाती से लगा लिए, मानो उसे उसके आघात से बचा रहे हों| गंगाजलि, पिता का अपनत्व पाकर कुछ बोलना चाह रही थी, पर मुँह से आवाज नहीं निकला| उसके मुँह पर एक रहस्यमयी करुणाजनक दीनता छा गई| उसने विवश दृष्टि से अपने पिता की ओर देखा, तो पाया, पिता की आँखें लाल हैं, लेकिन उनमें उन्मत्तता या उग्रता नहीं है, बल्कि एक आत्मज्योति झलक रही है| वे विनय, क्षमा से परिपूर्ण हैं|
गंगाजलि, दोनों हाथ जोड़कर रोती हुई बोली---- पिताजी! राधाचरण बुरा लड़का नहीं है, उनके मन में मेरी सास, इतना भ्रम पैदा नहीं करती, तो यह नौवत नहीं आती| उनके विचार में इतना अंतर आना, इस बात का प्रमाण था कि वे प्रेम के ऊँचे आदर्श से इतने निचे गिर गए, और जो प्रेम के निर्मल जल में तैरते हुए अविश्वास के सवारों में उलझ गए|
लगता है, उस घर के द्वेष्पोषक जलवायु ने हमारे बीच अंतर डाल दिया| विभूति प्रसाद ताड़ना देते हुए बोले---- बेटी, तुम बुरा मत मानना, मुझे तो बहुत कुछ तुम्हारा ही दोष दीखता है| तुमको अपने रूप पर गर्व है, तुम समझती हो, तुम्हारे रूप पर मुग्ध होकर तुम्हारे पैंरों पर राधाचरण अपना सर रगड़ेंगे, तो ऐसा नहीं होगा| और ऐसा हुआ भी तो यह प्यार टिकाऊ नहीं होता| मुझे समझ नहीं आता कि तुम वहाँ अपनी सास–देवर से हमेशा क्यों तनी रहती हो? मैंने जैसा सुना है, वे लोग बहुत विचारशील लोग हैं| तुम उनलोगों को जिस दिन अपना समझने लगोगी, वे लोग तुम पर अपनी जान छिडकेंगे|
गंगाजलि चिढ़कर बोली---- वे लोग तो चाहते हैं, मैं रूखा-सूखा खाऊँ, तपस्विनी बन जीऊँ; मुझसे यह सब नहीं होगा, चाहे नाता टूट ही क्यों न जाये? ऐसे आपका कहना बिलकुल यथार्थ है, सचमुच मैं पिता और पति, दोनों के गले में जंजीर की भाँति पड़ी हुई हूँ| सच मानिये पिताजी---- मैं यहाँ आना नहीं चाहती थी, मगर मैं अपने वश में नहीं थी, सत्कल्पनायें कमजोर हो गई थीं, जो मुझे यहाँ ले आई| इतना कहकर गंगाजलि पिता का घर छोड़ दी और, गंगाघाट पर जाकर, गंगा को साक्षी रखकर गंगाजल में समा गई|
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