गीत प्रेरणा
मेरे प्राण का गोपन स्वर संगीत
अंतरतम का भाव बन जाग, आज
उर तंत्री से बाहर निकलना चाह रहा
ज्यों दबी माटी के नीचे बीज फ़ूट
अंकुर बन बाहर आने अकुला रहा
पर मुझे नहीं मालूम,है वह कौन राग
जो निज स्वार्थों से आवृत होकर
हृदय को मस्तिष्क के विरुद्ध कर
साँसों की अग्नि ज्वार पर चढ़
मेरे मूर्च्छित जीवन में शीतल
बयार को हौले-हौले बहने कह रहा
जब कि मैं शाश्वत जीवन यात्री हूँ, मृत्यु पथ का
प्राणों के वैभव से बंचित, मैं निरंतर मृत्युद्वार को
पार करने तिमिर पथ में,रज-कण सा खड़ा रहता
मरने का खौफ़ होगा मृत्यु की छाती में, मैं तो
दिन-रात उसे इच्छाओं की मूर्ति से उतारकर
धरा पर , अपने गले लगाये रखता
मगर आगाही मेरी सुनती कहाँ,वह घटवासी
केवल कहती, मैं वासी हूँ अमर लोक की
मेरा कहा मानो, भाव भूमिका
जननी है, इस लोक के पाप-पुण्य की
ढलते यहीं सब,स्वभाव प्रतिकृति बन
गल ज्वाला से मधुर ताप की
इसलिए विधि के विधान में है,सहस्त्रों
त्रुटियाँ बताकर,मत खिल्लियाँ उड़ाओ
पहेली बनी,इस जीवन के पंचभूत की
जब उखड़ी साँसें उछल रहीं, कह रहीं
धड़कन से कुछ परिमित होने दो
सूखी लता के तन गह्वर में. सिसक रही
दुख गाथा बन,जो गंध अधीर,उसे समीर से
काँप रही, वंशी के स्वर – सरित में
स्वच्छंद ,अजित, अभीत हो, डुबो जाने दो
मत भूलो, टूट रहे जितने भी
फ़लक पलक पर , तारों के तार
इनमें छिपा है जग के अब तक के
रागों का, पृथक - पृथक गुंजार
इसलिए कंपित कर अपने उर तंत्री को
छेड़ दो तुम तान,और बता जग को
अतीत के किस विस्मृति का है गान
जिसमें न सुर है, ताल है, न ही है
याचना, प्रार्थना, क्रोध, अभिमान
है केवल दूर स्मृति की मृतभाषा
और है चिता को चीरता आह्वान
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY