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गुरुनानकदेव जी

 

गुरुनानकदेव जी


सिक्ख पंथ के प्रवर्तक, निर्गुण मत के प्रसिद्ध संत, नानकदेव जी सिक्खों के पहले गुरु थे| उनका जन्म लाहौर से 30 मील दूर तलवंडी स्थान में 1526 में हुआ था| इस स्थान को अब नानक के नाम पर ‘ननकानासाहब’ भी कहते हैं| अंधविश्वास और आडम्बरों के कट्टर विरोधी गुरुनानकदेव जी का जन्म प्रत्येक कार्तिक पूर्णिमा को प्रकाश उत्सव के नाम से मनाया जाता है, अर्थात् यही इनकी जन्मतिथि है| इस अवसर पर भारत के सिक्ख श्रद्धालुओं का जत्था प्रति वर्ष वहाँ जाते हैं और जाकर अरदास करते हैं|


कबीर के भावों का साम्य गुरुनानकदेव जी भी राम-नाम के ताप को महत्त्व देते हैं| बचपन से ही वे आध्यात्मिक प्रवृति के थे तथा अपनी बाल्यावस्था में ही जब-तब अपनी आँखें बंदकर चिंतन-मनन करने बैठ जाते थे, जिसे देखकर उनके पित़ा कालू और माता तृप्ता चिंतित रहा करती थीं| नानकदेव जी, भक्त को ‘सोहागिनी’, और हरि को ‘वर’, कहते हैं…


‘बिनु हरिनाम कोउ मुकुति न पावसि


डूबी मुए बिन पानि|’


गुरुनानकदेव जी पुस्तक पढने वाले पंडित की भी हँसी उड़ाते हैं| वे बिना राम-नाम और भक्ति के इस पुस्तकीय विद्या को व्यर्थ मानते हैं| वे कबीर के समान, कहते हैं...

‘पुस्तक पाठ व्याकरण बखानै,


संधि आ करम त्रिकाल करै|


बिन गुरु सबद मुक्ति कहा,


प्राणी राम-नाम बिनु अरूछि मरै||’


बचपन में उनकी प्राथमिक शिक्षा के लिए उनके माता-पिता ने, जाने-माने गुरु हरदयाल के पास उनको भेजा, लेकिन गुरुजी बालक नानक के प्रश्न पर कभी-कभी निरुत्तर हो जाया करते थे| वे समझ गए थे, कि इतनी छोटी उम्र में ऐसे विचित्र (अध्यात्म से जुड़े) प्रश्न, कोई तभी कर सकता है, जिसका गुरु स्वयं ईश्वर हो| बड़े होने पर उनका विवाह, बटाला निवासी की कन्या, ‘सुलक्षणी’ से हुआ| उनके दो पुत्र श्रीचंद और लक्ष्मीचंद थे| उनके पित़ा, उन्हें कृषि, व्यापार में लगाना चाहे, लेकिन वे घर में रहकर भी घर के घेरे में बंध न सके| वे अपने जीविकोपार्जन हेतु दौलत खां, सुल्तानपुर के गवर्नर के यहाँ मोदी का काम करने लगे| बाद में विरक्ति जगने पर वे सब कुछ छोड़कर उपदेश करने लगे और घूम-घूमकर भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों में जा-जाकर अपने मत का प्रचार करने लगे| बाद में उन्होंने मक्का-मदीना आदि मुस्लिम तीर्थस्थानों की भी धर्मयात्रा की|


वे अपने समय के विदेश जाने वाले प्रथम संत थे| वे जात-पात को समाप्त करने, तथा सबों को एक दृष्टि से देखने की दिशा में कदम उठाते हुए, लंगर की प्रथा शुरू किये| लंगर में, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, ब्राह्मण-शूद्र सभी एक साथ पंक्ति में भोजन करते थे, जो कि आज भी गुरुद्वारे में प्रचलित है|


अनहद का बाजा आदि का वर्णन ‘विराट पुरुष का सगुण रूप’, अत्यंत मनमोहक है| गुरुनानकदेव के व्यक्तित्व की विशेषता यह है, कि वे गृहस्थ और विरक्त, राजयोगी धर्म सुधारक, संत और भक्त कवि एवं संगीतग्य सभी थे| उनकी परमात्मा की आरती बड़ी भावपूर्ण है, लिखते हैं...

‘गगन मै थालु रवि चंदु, दीपक बनै तारिका मंडल जनक मोती 


धुपु मलयानलो पवणु चवरो करै, सगल बनराय फुलत जोती 


मलयानिल का धुप,पवन चँवरे करै करना,सगल बनराइ फूलंत जोती|’


गुरुनानक जी के उपदेश…


‘(i) ईश्वर एक है|


(ii) सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करना चाहिये|


(iii) ईश्वर सब जगह, सब प्राणी में है|


(iv) ईश्वर की भक्ति करने वालों को, किसी का भय नहीं रहता| 


(v) ईमानदारी और मेहनत कर अपना पेट भरना चाहिए| 


(vi) न किसी का बुरा करें, न किसी से बुरा करने कहें| 


(vii) सदैव प्रसन्नचित्त रहना चाहिए| ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिये| 


(viii) अपनी मेहनत और ईमानदारी में से कुछ अंश निकालकर, जरूरतमंदों की सहायता करनी चाहिए|


(ix) स्त्री और पुरुष, दोनों बराबर हैं| 


(x) भोजन ज़िंदा रहने के लिए खाना चाहिए, लोभ-लालच और संग्रह-वृति बुरी है|’


गुरुनानकदेव कई हिन्दू, बौद्ध-धर्मों के तीर्थस्थलों की यात्रा के बाद, मक्का की यात्रा अपने शिष्य मरदाना के साथ हाजी का वेश धारण कर किये थे| इस यात्रा का विवरण कई ग्रंथों और ऐतिहासिक किताबों में मिलता है| ‘बाबा नानक शाह फ़क़ीर’ में हाजी ताजुद्दीन नक्श्वन्दी ने लिखा है, कि वे गुरुनानक से हज-यात्रा के दौरान ईरान में मिले थे| जैन- उ-लनदीन की लिखी ‘तारीख अरब ख्वाजा’ में भी गुरुनानक देव जी के मक्का-भ्रमण का जिक्र है| हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब आफ सिक्ख वारभाई गुरुदास और सौ साखी, जन्मसाखी में भी नानकदेव जी की मक्का -यात्रा का विवरण है| 


कहते हैं, नानकदेव जी के एक शिष्य था, नाम था मरदाना; जो कि मुसलमान था| उसने नानकदेव जी से कहा, उसे मक्का जाना है, क्योंकि जब तक एक मुसलमान मक्का नहीं जाता; तब तक वह सच्चा मुसलमान नहीं कहलाता है| गुरुनानकदेव जी उसे स्वयं अपने साथ लेकर मक्का गए| वहाँ पहुँचकर वे बहुत थक चुके थे| वे हाजियों के लिए बने आराम-गृह में जाकर मक्का की तरफ पैर करके लेट गए| यह देखकर हाजियों की सेवा करने वाला (नाम था जियोन) बहुत गुस्सा में आ गया और बोला, ‘गुरुजी आप जिधर पैर रखे हैं, उधर मक्का है|’ इस पर गुरुजी बोले, ‘ठीक है, जिस तरफ खुदा नहीं है, उसी तरफ मेरा पैर कर दो|’ तब जियोन को समझ में आया, कि खुदा एक दिशा में नहीं, वे तो हर तरफ हैं| उसके बाद गुरुजी ने कहा, ‘जियोन, अच्छा कर्म ही खुदा की सच्ची भक्ति है| यही सच्चा सदका है|’


सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरुजी ने जब देखा, दुनिया में बहुत अंधकार है, फैला हुआ, सत्य का नामोनिशान नहीं है; धर्म गुरुजी, धर्म के प्रचार के लिए घर त्याग दिए, और चारो दिशाओं की लम्बी यात्रा की; जिन्हें चार उदासियाँ कहा जाता है| कहते हैं, इस यात्रा के दौरान मिले, कौड़ा राक्षस और सज्जन जैसा ठग, गुरूजी की प्रेरणा से सत्यवादी बन गए| गुरुजी पहाड़ों, बीहड़ों, गुफाओं में बैठे, योगियों तथा सिद्धियों से भी मिले तथा उनसे भी यही प्रार्थना किये ,कि आप दुनिया में जाकर लोगों को परमात्मा के साथ जोड़ने का काम करें|


गुरुनानक देव जी अपने शिष्य मरदाना के साथ 28 सालों तक पैदल यात्राएँ कर लगभग 60 शहरों का भ्रमण किया| मक्का यात्रा चौथी और उनकी अंतिम यात्रा थी| अपनी यात्राएं पूरी कर वे करतारपुर साहिब आ गए और उदासियों का वेश उतारकर संसारी वेश धारण कर लिए तथा अपनी खेतीबाड़ी करने लगे| 1539 में आप करतारपुर साहिब में अपनी गद्दी का भार (अंतिम काल में) अंगदेव को सौंप परम ज्योति में मिल गए|

 

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