हवन कुंड
20 साल गुजर गये, सावित्री के पति को मरे हुए, तब उसके दोनों बेटे छोटे-छोटे थे; एक दश के और एक आठ के रहे होंगे। पूंजी के नाम पर पति का दिया एक घर था, और एक गाय, जिसका दूध बेचकर सावित्री ने अपने बच्चों को पाला, पढ़ाया-लिखाया। जब दूध के पैसे, बच्चों के खर्च के लिए कम पड़ जाते थे, सावित्री, रात का अपना भोजन छोड़ दिया करती थी। साबूत धोती पहनने की बात तो दूर, देखने तरस गई थी; लेकिन तब सावित्री जवान थी, जवानी का जोश था, बल था, दया थी, साहस था, और आत्मविश्वास था। यह सब उसके बच्चों के भविष्य जीवन को परिपूर्ण और उज्ज्वल बनाने के लिए काफ़ी था। बच्चे भी होनहार थे, विद्या के उपासक थे, पर सारे संसार से विमुख; जिनके साथ पढ़ते थे, उनसे बातें भी नहीं करते थे। मातृ-स्नेह के वायुमंडल में पड़कर वे घोर अभिमानी हो गये थे। संगी-साथियों का परित्याग, रात-दिन घोर पढ़ाई और पुस्तकों के एकांतवास से अगर दोनों बच्चों में अहं भाव आया, तो आश्चर्य की कौन सी बात थी? मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है, जो जिस परिवेश में पलता है, उसका असर तो पड़ता ही है। यही सोचकर सावित्री कभी बच्चों के इस व्यवहार पर गलत नहीं सोची, लेकिन भविष्य के कोख में छिपे काले दुख के साये को देख रही थी। इस कारण कभी-कभी उसका कलेजा विचलित हो उठता था, किन्तु करती भी क्या, आकांक्षा का नशा जो पी रखी थी। यही बात उसे बेबस किये रहती थी, अपने बच्चों को बड़ा होता देख, वर्तमान के सुख से आनंदातिरेक हो उन्मत्त थी। वह भविष्य को सोच वर्तमान खराब करने के लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था, इसमें चिंता करने का कारण ही क्या है? इतिहास गवाह है, एक तरफ़ श्रवण कुमार का माँ-बाप की भक्ति है तो दूसरी तरफ़ औरंगजेब भी तो था, इसलिए अभी के सुखातिरेक को उपभोग न कर कल की आशंका पलकों में दबा लूँ, कानों को बंद कर लूँ, क्यों भविष्य सुख की खातिर वर्तमान सुख से वंचित रहूँ? जब कि पति के जाने के बाद मेरा जीवन जब किसी स्नेह छाया की ओर बढ़ा; सामने मेरे दोनों संतान मिले।
समय के साथ सावित्री के स्वच्छंद जीवन आकाश पर धीरे-धीरे काले मेघ छाने लगे, जिस माँ ने ऋषि –वरदान की भाँति अपने बच्चों के शून्य जीवन को विभूतियों से परिपूर्ण कर दी, मरूभूमि में हरियाली उत्पन्न कर दी। वहीं दोनों बेटे, बार-बार माँ में खामियाँ निकालकर, उसे नीचा दिखाने की कोशिश करने लग। एक दिन नारायण और विश्वंभर ( दोनों बेटे ) सावित्री के पास आकर बैठे, और कहने लगे--- माँ! तुम जितनी धार्मिक और शांत स्वभाव की हो, और तुममें जितनी सहनशीलता है, शायद होना उचित नहीं है।
सावित्री, आँचल से अपनी आँखों के आँसू पोछती हुई कही ---- बेटा! मैं गरीब तो पहले ही थी; तकदीर ने तुम्हारे पिता को मुझसे छीनकर मुझे अनाथ भी बना दिया। जिससे मैं खुद को असहाय महसूस करने लगी, और यही मजबूरी, मुझमें इतनी सहनशीलता भर दी। सावित्री आगे, और कुछ कहती, नारायण बीच में बोल उठा--- क्या माँ, हम एक कुत्ते से भी अधिक गरीब और असहाय हैं? अरे कुत्ते भी कभी-कभी उग्र रूप लेते हैं, लेकिन तुम्हें तो मैंने कभी जोर गले से बात करते नहीं सुना।
विश्वम्भर, व्यंग्य का बरसात करते हुए कहा---- भैया, इतनी सहनशीलता गदहे में होती है, उसे मारो, गाली दो, कभी उग्र नहीं होता। अपने दोनों बच्चों की बात सुनकर सावित्री कराह उठी, जैसे किसी ने कलेजे में खंजर भोंक दिया हो, लेकिन दूसरे ही पल सहनशीलता ने सावित्री को शांत कर दिया। भाग्य की यह कूटनीति शनै:-शनै: द्वेष और दुख का रूप धारण करेगा, सावित्री समझ गई, उसकी जीवन-नौका आश्चर्य की अथाह नदी में डगमगाने लगी।
उसने मन ही मन अपने पति को यादकर, रोती हुई कही---- क्या इसी दुख को देखने के लिए मैं अब तक तुम्हारे बगैर जिंदी हूँ। उसके मन के भीतर दबी हुई आग के सदृष्य जागने लगे। वह अतीत के आँगन में, त्याग के हवन-कुंड के पास जाकर बैठ गई, और निर्निमेष दृष्टि से ताकती से रही। जब उसके हृदय-दुर्ग की सहन-दीवार टूट गई, तब फ़फ़क-फ़फ़ककर रो पड़ी। वह अतीत के हवन-कुंड से अपने भष्म जीवन की राख में, निकालकर कुछ ढ़ूँढ़ने लगी, मानो उसके जीवन भर की कमाई इसमें भष्म हो गई हो। सोचने लगी, अब जीवन युद्ध करूँ, या आत्मरक्षा का युद्ध, उसके हृदय में विचारों का यही वेग उथल-पुथल कर रहा था। शायद मेरे दोनों संतानों को अपने कहे पर क्षोभ हो रहा होगा, वे आकर चरणों पर गिरकर कहेंगे--- माँ! हमें माफ़ कर दो, लेकिन उसका भ्रम तब दूर हो गया, जब देखी, ‘दोनों बेटे वहाँ से उठकर दूसरे कमरे में चले गये’। उसके रोष की अग्नि और भड़क गई, एक माँ का इतना निरादर, वह भी ऐसी माँ के लिए जिसने दिन को दिन, रात को रात नहीं समझा। सोते-जागते संतान के लिए सुखी जीवन की कामना लिये, मंदिर-मंदिर भटकी। देवता के चरणों में गिरी, मिन्नतें की, बोली----"हे देव! मैंने आज तक अगर कुछ पुण्य का काम किया हो, तो उसका फ़ल मेरे संतान को देना, और उसने जाने-अनजाने कुछ बुरा कर्म किया हो, तो उसका फ़ल मुझे देना।" घर की कलह, सावित्री के चित्त में वैराग्य उत्पन्न कर दिया। एक बार उसे ऐसा लगा, कि मुझे संन्यास ले लेना चाहिये, लेकिन दूसरे ही पल, दोनों बेटे का घर बसाने की याद कर विचार भूल जाती थी।
अपने दोनों पुत्रों की शादी देकर, सावित्री बहू-धन के सामने अपनी सारी चिंतायें भूल गई। अगर कुछ दुख था तो यही कि पतिदेव होते, तो इस समय कितने आनंदित होते, सावित्री ने किन कष्टों को झेलते हुए पुत्र का पालन- पोषण किया, इसकी कथा लम्बी है, सब कुछ सहा, पर किसी के सामने हाथ नहीं फ़ैलाया। सावित्री का ममत्व उसके स्वार्थ पर टिका हुआ था, ऐसी बात नहीं थी। उसका तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत पर बीतता था, कहने को उसका घर था लेकिन पूरी तपस्विनी बन गई थी। नारायण जब-जब अपनी माँ का बखान अपनी पत्नी के सामने करता, पत्नी कहती---’अरे छोड़ो भी, बहुत देखी तुम्हारी माँ की धर्म-भक्ति, स्वार्थ मनुष्य के मन-बुद्धि का इतना संस्कार तो कर ही सकती है।’
पत्नी का यह सलाह नारायण के दिल में माँ के प्रति इतना क्रोध भर दिया। वह माँ-माँ पुकारता हुआ सावित्री के पास पहुँचा, देखा----- सावित्री, चिंतित, उदास पत्थर की मूरत बनी, दीवार को कुछ इस कदर निहार रही है, मानो दीवार पर चलचित्र चल रहा हो।
नारायण, चिल्लाते हुए कहा---- माँ, तुम क्या कर रही हो? इस कूप से बाहर निकलो, देखो घर में कितना काम पड़ा है? बहुएँ दोनों कब तक करती रहेंगी, थोड़ा हाथ बँटा देने से तुम्हारा कद छोटा नहीं हो जायगा।
सावित्री, नारायण के मुँह से ऐसी बातें सुनकर चौंक गई। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि जिसे वह जीवन का आधार और आशाओं, आकांक्षाओं का केन्द्र समझकर, बड़ा कर रही, वह इस तरह अपमान कर सकता है। उसने बेटे की बड़ी-बड़ी आँखों की तरफ़ देखती हुई बोली---- बेटा! तुम जानना चाहते हो न कि मैं यहाँ अकेली क्यों बैठी रहती हूँ, यहाँ मेरा हवन-कुंड है, जिसे तुम्हारे पिता और मैं दोनों ने मिलकर शुरू किया। वे तो अपना हवन अधूरा छोड़कर चले गये, लेकिन मैंने पूरा हवन किया; फ़िर भी पता नहीं, आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, कि हवन कुंड में डालने के लिए कुछ घट गया। तुम बता सकते हो, वह क्या है? मैंने इसमें शांति, आराम, भूख, चैन, दर्द, बेशर्मी; यहाँ तक की लहू भी डाला। फ़िर कुछ कमी रह गई, ऐसा एहसास मुझे क्यों हो रहा है?
नारायण, सावित्री की पूछी बातों का कोई उत्तर न देकर, चुपचाप खड़ा रहा, फ़िर जाने लगा।
सावित्री, आँख का आँसू पोछती हुई कही---- बेटा! रूक जाओ, तुम तो नहीं बता सके, लेकिन मुझे याद आ गया।
नारायण आँखें नीची कर पूछा----- क्या ?
सावित्री, दर्द की हँसी हँसती हुई बोली---- हाड़ से चिपके ये चमड़े! इसे तो मैंने इस हवन कुंड में डाला ही नहीं।
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