हिमालय
भारत की आत्मा की गरिमा के भू पर
अपनी ही सत्ता में निर्भर होकर
युगों से मौन , गंभीर , निरभिलाष
जगती की मधु प्याली में अपना
अधर सुधारस भरे आ रहे
तुम कौन हो ऋषिवर !
तुम्हारे आने से पहले दावाग्नि ग्रस्त
वन के समान, दाह्यमान थी यह धरती
प्रतिपल ज्वाला बन, धधक रही थी
एक दिन यहाँ मधु की निर्झरी फ़ूटेगी
यहीं पर सुधा वृक्ष उन्नत होकर
भू को स्वर्गिक-मुख सुषमा से करेगा भूषित
किसे पता था, खुलती पँखुरियों का कंचुक
हृदय की झंकृतियों से नहीं होगी झंकृत
बल्कि धरा साँस से होगी स्पंदित
क्षीर , कल्प , सरित , अगरु सौरभ
से भरा शीतल पवन बहेगा, स्वर्ग से
उतरकर धरा पर आकर, ऋतुपति
अपने ताप द्रवित उर का रस करेगा अर्पित
तारे लेकर मन की जलन, यहाँ बुझाने आयेंगे
रूप धर सीमित हो, गोदी में सूरज खेलेगा
कुसुमित,साँसों के तरंगों पर गगन होगा तरंगित
शोभा की अरुण शिखा से प्रज्वलित हो
तम खोहों में भी फ़ैलेगी उजियारी
जिससे सुख- सम्पदा की होगी समृद्धि
दग्ध युग के, मन मरु में प्राणों का
कलरव होगा,सद्य स्फ़ुट कुसुमों के मुख पर
हिमशीतल, मुक्ता से ओसकण होगा शोभित
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