हिंदी की दशा और दिशा
मानव को समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ कहा गया है, कारण एकमात्र मानव मस्तिष्क ही है, जहाँ विचार उत्पन्न होते हैं | इन विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा की जरूरत पड़ती है , हालांकि मौन मुखर होता है, लेकिन भाषा पाकर विचार मूर्त रूप को धारण करता है | भाषा मनुष्य के उल्लास और पीड़ा की संवेदनाओं का एकमात्र अनुवाद नहीं होता | भाषा वैचारिक और मानस पटल पर उद्वेलित होने वाली भावनाओं का प्रतिबिंब होता है | भारत में , विश्व में कई भाषाएँ बोली जाती हैं ; परन्तु हिंदी भाषा अपनी सहजता और लचीलेपन के कारण इस संवेदनशीलता की विशेषता के अत्यंत निकट है |
हिंदी का इतिहास , हजारों साल पुराना है , हिंदी अपनी विकास-प्रक्रिया में एक गतिशील नदी की तरह बहती हुई , नित जटिलता से जूझती हुई आगे बढ़ रही है, जब कि इसके बहाव में अंग्रेजी -भाषा रूपी पत्थर बाधक बन रही है , जिसके कारण कई शब्द प्रचलन, से हट चुके हैं , जैसे--- रेलवे स्टेशन, टेबुल , ग्लास , बटन, शर्ट , आदि-आदि | हिंदी के साथ विडंबना रही है, कि कुछ निहित राजनीतिक स्वार्थों के चलते, कभी इसकी जगह तमिल, तो कभी अंग्रेजी, तो कभी उर्दू को खड़ा कर दिया जाता है, जिससे इसका बहाव बाधित हो रहा है | इसमें अधिकतर शहरी और धनाढ्य लोग हैं , जिनकी आय की वृद्धि इससे जुडी रहती हैं | इसमें गाँव के किसान-मजदूर , नहीं आते ; स्वार्थपरता , सवर्ण मानसिकता तथा राष्ट्रभाषा- राजभाषा के तिकड़म में सबसे ज्यादा हिंदी को नुकसान पहुँचाया है | 1960 के दशक में उत्तर भारत में अंग्रेजी हटाओ , तो दक्षिण भारत में हिंदी हटाओ के राजनीतिक अभियान में, भाषा किस प्रकार प्रभावित हुई; हिंदी कवि धूमिल ने इन पंक्तियों में व्यक्त किया है— - - -- --
’ तुम्हारा यह तमिल दुःख; मेरी इस भोजपुरी की पीड़ा
भाई है , उस तिकड़मी दरिन्दे का कौर |’
हिंदी की अस्मिता , कबीर, प्रेमचंद जैसे महान कलाकारों के कलामों की बोलियों के चलते , और उनकी क्षेत्रीय भाषाओं के संवाद की बदौलत इतना प्रभावशाली हुआ है |
आज के इस भूमंडलीकरण की दौर में अंग्रेजी का एक ऐसा हौवा खड़ा किया जा रहा है, कि हिंदी के पक्ष में की गई किसी भी बात को दकियानूसी विचार करार दिया जाता है | इसमें कोई संदेह नहीं , कि अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा है | इस भाषा के माध्यम से हम विश्व के एक बड़े हिस्से तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं , बावजूद अंग्रेजी अखिल भारतीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती | जब कि देश-विदेश में रह रहे भारतीयों कि अस्मिता, उसकी अपनी पहचान निज भाषा में ही संभव है | कवि विद्यापति ने सदियों पहले शायद इसी को लक्ष्य कर कहा होगा ---
‘’ देसिल बयाना सब जन मिट्ठा ‘’|
आज बाजार में हिंदी में , अंग्रेजी को ठूँसकर हिंदी बोली जा रही है | आजादी के बाद प्रतिक्रियावादी , सवर्ण प्रभु-वर्ग जिनकी सांठ-गाँठ अंग्रेजी के अभिजनों के साथ थी, उनकी भाषा शैली में अंग्रेजी के अधिकतम उपयोग, हिंदी को सिकुड़ने के लिए बाध्य कर रही है | लोग अपनी ही भाषा-संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं | वे हिंदी में बातें करना हेय समझते हैं | आज की आर्थिक विकास की दौर में जिस प्रकार हमारी भाषा, साहित्य, संस्कृति धूमिल होती दिखाई दे रही हैं ; यह बेहद दुखद है, चिंतनीय है | आज के भारत को केवल भौतिक विकास की स्थिति से ही संतुष्ट नहीं होना होगा , बल्कि अपनी आंतरिक शक्ति को भी सुरक्षित रखना होगा ; जिसके लिए , कवि मुहम्मद इकबाल ने कहा था _---
‘यूनान, मिश्र , रोम सब, जहाँ से मिट गए ; कुछ तो बात है कि हमारी हस्ती मिटती नहीं , यह शक्ति हमारी भाषा, साहित्य और संस्कृति की है |’
मेरी समझ से, अगर हिंदी को रोजगारमुखी आयाम प्रदान किया जाय, तो अधिकतर युवा शक्ति इस भाषा से जुड़ेंगे , तभी हिंदी अपनी वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेगी | मात्र हिंदी भाषा साहित्य को वैचारिक अखाड़ा करने से यह पुनर्जीवित नहीं होगी , बल्कि सरकारी, और बे-सरकारी ,दोनों संस्थानों को इसके लिए सृजनात्मक जमीं तैयार करना होगा ; तभी हिंदी भाषा की पौध को हरिताभ किया जा सकता है | यूँ तो स्वतंत्र भारत के प्रश्न पर 14 सितम्बर 1949 को एक निर्णय लिया गया , जिसमें सर्वसम्मति से यह तय हुआ ,कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी , और संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय रूप लेगा | इसलिए 14 सितम्बर ,हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा | इस दिन स्कूल, कालेजों में हिंदी के प्रति जागरूकता लाने के लिए , निबंध -लेखन, वाद-विवाद आदि प्रतियोगिता का चलन शुरू किया गया | इसमें ऐसे व्यक्ति को जिनको हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार तथा हिंदी के उत्थान के लिए विशेष योगदान हेतु उन्हें सम्मान स्वरूप एक लाख रुपये देने का व्यवधान भी रखा गया, जो हर साल मनाई जाती है | उद्देश्य इतना ही है कि हिंदी जन-मन की भाषा हो, लेकिन सब कागज़ पर ही धरा है, मूर्त्तरूप देने के लिए न ही लोग , और न ही देश की सरकार , उत्साहित है | इस प्रकार , हिंदी अपने ही घर में दासी बनकर रह गई है | आज तक संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा नहीं बनाई जा सकी , अफसोस है ,कि योग को 177 देशों का समर्थन मिला; लेकिन हिंदी के लिए 129 देशों का समर्थन भी नहीं जुटाया जा सका | इस तरह केवल हिंदी दिवस पर हिंदी भाषा के विकास और उसके उपयोग के लाभ, तथा हानि कि बात करने से कुछ नहीं होगा, मात्र दिखावा बनकर रह जाएगा |
किसी भी देश का राष्ट्र गीत , राष्ट्र ध्वज एवं राष्ट्रभाषा उस देश के मान विंदु होते हैं | कश्मीर से कन्याकुमारी तक, साक्षर से निरक्षर तक, प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति हिंदी भाषा को आसानी से बोल-समझ लेते हैं, जरूरत है इसमें थोड़ी मेहनत , और प्रयास की, जिससे हिंदी , उनके रोजमर्रा की जरूरतों को अन्य भाषाई राज्यों , शहरों में भी पूरी कर सके | कोई भी भाषा तब और भी समृद्ध मानी जाती है, जब उसका साहित्य भी समृद्ध हो | आदिकाल से अब तक हिंदी-आचार्यों , संतों , कवियों , विद्वानों , लेखकों एवं हिंदी प्रेमियों ने अपने उत्कृष्ट ग्रंथों , अद्वितीय रचनाओं एवं लेखों से हिंदी को समृद्ध किया है | अब हमारा कर्तव्य है,कि हम हिंदी को अपने विचारों , भावों ,तथा मतों के माध्यम से, विविध विधाओं के माध्यम से हिंदी में अभिव्यक्त करें , जिससे हिंदी और अधिक समृद्ध बन सके | जब तक हिंदी को तेजी से उड़ने के लिए , हम समृद्धता को पंख नहीं देंगे, वह उड़कर देश से बाहर जाकर लोगों के जिह्वा पर कैसे बैठेगी, और कैसे भारत के समृद्धिशाली इतिहास को बताएगी , क्योंकि भविष्य की पहचान की चाभी किसी भी देश की भाषा होती है | याद रखना होगा कि राष्ट्रभाषा के बिना देश गूंगा होता है |
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