Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जब छाता तिमिर घन

 

जब छाता तिमिर घन



मेरी  सुधि  में  तुल, मेरी प्यास में घुल

तुमहर   क्षण  रहते  हो  पास  मेरे

फ़िर , यह  दुनिया  पूछती  क्यों मुझसे

अरि  ओ !  आदर्शों का  नव दर्पण

तेरी  साँझ  सी जीवन  के काया वन में 

घिरता जब  विषाद  का  तिमिर  घन

तबकौनहै वह  तेरामनभावन

जो  तेरे  भावों  का  आकार  ग्रहण कर

अकम्पित आलोक से खड़ा रहता साथ तेरे


तेरे बेसुध प्राण  को  अपने  स्निग्ध

करों  से, सीने  से लगाकर, साथ सुलाता

अपनी साँसों के समीर से, जग से भरकर

धीर गंध,तेरी साँसों में भरता और कहता

कितना सुरभित है जीवन-मृत्यु का तीर रे


किसे   यादकर  तू , अपने  हृदय  के

सूने  आँगन  में  तड़िल्ला सी खिल पड़ती

और जाते ही दूर,उसकी स्मृति की छाया से

तू साँझ कमल सी मुरझ जाती

अरि  ओ  नींद  विजयिनी ! सच  बतला

जिस  पीड़ा  को  तू  अपने  अश्रुजल  से

सींचती  रही, वह  तेरा  कौन  लगता  री





कौन  है  वह  जो तुझको अपना हृदय-बंदी

बनाकर, अपने  विजय-ध्वज  से बांध गया

किसके  लिये  तेरा तपित प्राण, अंगारों का

मधुरस पीकर,केसर किरणों सा झूमता रहता

किसमिलन  की  आस  लिये  तू माँग

नींद  से, अनंत  वर, सोने  जा  रही है री



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