जागृति है या कोई सपना
ईश्वर ही जाने , जागृति है या कोई सपना
जिस कुसुमाकार आनन की,मादक छाया में
बैठनेमेराप्राण ,जीवन भर ललकता रहा
वहआज , मेरेजीवन अस्ताचल की
उजड़े वन में, सुमन लदी शाखा सी हिलती
खुद- ब -खुद चलती , मेरे पास आ गई
अपने अलकों कॊ डोरी में , मेरे जीवन के
कण-कण को उलझाकर,मुझसे कहने लगी
पोंछ लो अश्रु भींगे अपने ये दोनों नयन
रोने से वेदना,कभी किसी की न हुई कम
माना कि घमासान अँधियारे के भीतर
अश्रु आशा का है शेष एक दीपक,मगर
इसअश्रु - जल सेसिंचित होकर
भवधरा कभी न रह सकी हरी-भरी
व्यर्थ होगा इसे नयन में बसाये रखना
मेरी मानो,कहने को मैं तुमसे दूर-दूर थी
पर सपने में भी,मैं तुमसे भिन्न नहीं थी
वहतो हम दोनों के निज भाग्य की
विकृत , वक्ररेखाओं का खेलथा
जोहम दोनों , एकदूजे का पर्याय
होकर भी, हम दोनों में न कोई मेल था
आज समझ आया ,क्यों लहरों ने
मेरी जीवन नैया को छल से लेकर
उस सूने तटपर लाया , जहाँ
केवल तृष्णा का मरु था धधक रहा
कहीं नहीं थी तरुओं की सघन छाया
वो तोप्रेम सरिता कीतीव्र धार ने
बहाले आकर , मुझेसागर से मिलवाया
वरना, बड़ी तपिशथी वहाँ की ज्वाला में
नामुमकिन था,सांध्य सरोरुह का जिंदा रहना
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