जिन पलकों पर दुख जलजात खिला
जिन पलकों पर दुख जलजात खिला
बिन माँगे नियति से ,नभ भू तल का
संचित पीड़ा का सब उपहार मिला
जिसे पाकर मैं भूल गई, हृदय का
गुहा-गृह ताप शांत हो रहता कैसे हरा
सुख का मादक तरंग उठता कहाँ से
प्रेम तुष्टि शांति होती है क्या
आज कैसे कह दूँ,मिला जो एक जनम
नारी का, वह भी व्यर्थ चुपचाप गया
जीवन पर्यंत तृषित कंठ को पी–पीकर,वैश्वानर की
ज्वाला सी , मंच वेदिका पर बैठी रही
मननशील होकर इस अभय कर्म को करती रही
भविष्यत के अंधियाले से घबड़ाकर जब भी
सूरज से थोड़ी सी रोशनी माँगी ,उसने मेरे
नयन लोक में, रिक्त आग को भी उतार दिया
कहा, यह परम सत्य है देवी
तुम पर्याय हो , तपसिद्धि भूपा का
तुममें और प्रकृति के गुणों में कोई
भेद नहीं केवल दोष है दॄष्टि का
तुम धरा -व्योम का वह महासेतु हो
जिस पर चलकर,अदृश्य लोक से मनुज
आते यहाँ अर्थ खोजने जीवन का
इसलिये निज भाग्य को ग्रह, रश्मि रज्जु से
बाँधकर हाथ की लकीरों को पीटना छोड़ो
यह कोई नया नहीं रीति जग की
आरम्भ काल से ही,अबला कही जाने वाली नारी
जगत की यातनाओं को सहती आ रही
तभी तो नारी को ,विश्व विजयिनी,कल्याणी
दयामयी , सहिष्णुता कहा गया
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