जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
------डॉ० तारा सिंह, नवी मुम्बई
मृदु फ़ूलों की लोल लहरियों पर
उन्मादक पाँव रखकर, उतराने वाले
क्या तुम भूल गये , जिंदगी
फ़ूलों की सेज़ नहीं होती , यह तो
पिघलती शिलाओं की नदी है
जो अथाह और खामोश है
इसके दोनों किनारे खड़े,भाव–विटवा
के उलझन की डाली से,अमृत और
हलाहल दोनों , झूलरहे
जिसे धरा पर उतारकर, आँखों के
आगे रखकर पीने में , सुर – असुर
दोनों के छक्के छूट गये
मगर,मूर्ख मनुज सोचता,देवताओं का
जब देह नहीं होता, तो उनमें इच्छा
भावना, बल- प्रताप, कहाँ से आयेगा
हम मनुज हैं, हममें भावों का सतरंग
प्रकाश अनवरत बरसता रहता
सूरज - चाँद- तारे , सभी हमारे ही
संदेश वहन करते , पर्वत-निर्झर से
हमारा ही गायन फ़ूटता
दग्ध मरु के प्राणों में कलरव
हमारे ही जीवन हरियाली से भरते
प्रकृति पर सर्वत्र विजयी पुरुष आसीन है
वायु- जल,प्रकाश,हमारे ही मुट्ठी में बंद है
फ़िर हम ईश्वर को शक्तिमान क्यों मानें
धूप- छाँह की संगति से पल्लव में
मांसल परिणति भरता, यह उसकी
दयाहै , ऐसा हम क्यों कहें
देखना एक दिन , डाली से टूटकर
अमृत का यह रस-मटका खुद-ब-खुद
हमारे चरणोंपर आ गिरेगा
हम वृथा इनकी चिंता कर यौवन का
बहता मधु स्रोत क्यों सुखायें
अम्बर डोलता है, महल की नीव उखड़
जाती है, शेर काल के गाल में चला जाता है
इसे हम ईश्वरीय विभूति का प्रसार क्यों कहॆं
बाधा - विघ्नों का बल , जीवन तम का
चिर भास्वर , हो तुम क्यों कर जानें
मैं मानती हूँ , नियति की चोट को जब नर
सह नहीं पाता है, तब दुर्द्धर्ष बन जाता है
मगर, यह मत भूलो , पहाड़ , सागर, अम्बर
धरती, इन चिर - समाधिस्थों काध्यान
भंग आज तक किसी ने नहीं कर सका
हुँकारों से ये हिलते नहीं,ये सभी पंचत्व की
धारहैं , इन्हें हुँकारने वाला जगत की
नित्यता पर विश्व को छोड़, खुद चला जाता है
इसलिए पाना है अगर इसे , तो
अनंत पाताल को फ़ोड़ो , और
आसव के उस देश को ढूँढ़ो, जहाँ
सुख वेश बदलकर रहता है
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