जो तुमको अपने दिले– दुश्मन की महफ़िल में
रात ठहरना कबूल नहीं, तो मेरा क्या कसूर है
दुनियामें चलन है, चार दिनकी आशनाई का
ठहरे-ठहरे चलदिये, दुनिया का पुराना दस्तूर है
रिश्ता-ए-वफ़ा का ख्याल रखता कोई नहींयहाँ
जबआती खिजां, शज़र से पत्ते भागते दूर हैं
तुमनेजहाँ भी हमको तन्हा पाया, जान से मारा
जख्म भर गया,जो लहू न बहा तो मेरा क्या कसूर है
हमतो सर पे –बारे –मुहब्बत को लिये घूमते रहे
नमिली फ़ुर्सत सर उठाने की,तो मेरा क्या कसूर है
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