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Dr. Srimati Tara Singh
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काकी

 

काकी


अमर ने कलुवा के दादा , चौधरी ( जो दरवाजे पर बैठकर धूप सेंक रहे थे ) को राम-राम किया और वहीं पुआल की गद्दी पर बैठ गया । चौधरी ने भी पितृभाव से स्वागत करते हुए पूछा ----- इधर कैसे आना हुआ, बेटा ? 

अमर ने सकुचाते हुए कहा--- बस यूँ ही, आप सबों से मिलने की इच्छा हुई, और चला आया । चौधरी ( मुँह में पान की गिलौरी डालते हुए ) बोला--- अच्छा किया : मगर आजकल रहते कहाँ हो ? अमर ने मुस्कुराकर कहा---- घर पर ही, कोई नौकरी-चाकरी तो मिली नहीं, बस ले-दे के पिता के होटल में खाता हूँ; गृहस्थी ही एकमात्र जीविका है। फ़िर हैरानी जताते हुए अमर ने चाचा से पूछा --- कलुवा कहीं दिखाई नहीं पड़ता है ? उत्तर में चाचा जी ( चौधरी ) दुखी होते हुए बोले ---- बड़ा अभागा है कलुवा। माँ को तो पहले ही खो दिया था, एकमात्र सहारा बची थी काकी, वह भी एक साल पहले उसे छोड़कर चली गई ।

अमर सशंक होकर बोला --- काकी नहीं रही ? चौधरी ,करुण स्वर में बोले ---- एक साल पहले, अचानक एक रात , थोड़ी उल्टी हुई और चल बसी । तब से कलुवा ,बेसहारा हो गया । चार साल का बच्चा, अभी ही तो उसे माँ की जरूरत थी । जब अबोध था, तब तो कोई फ़िक्र नहीं थी; जो दूध पिला दिया, उसी का हो गया । लेकिन अब तो सब कुछ बोलता है, समझता है; अच्छा- खराब महसूस करता है । कलुवा जब छ: महीने का था, तभी माँ मर गई; तब से काकी ने ही उसे पाला-पोषा । उसे जब कभी काकी की याद आती है, वह रोने लगता है; न खाता है, न खेलता है । उसका रोना देखकर मेरा कलेजा फ़ट जाता है ।

तभी कलुवा मुहल्ले के बच्चों के साथ खेलना छोड़कर रोता हुआ दादा के पास आया, और बोला---- ’ दादा ! ’काकी’ कहाँ है ? चौधरी बिस्तर के नीचे से एक पतंग निकालकर देते हुए कलुवा से कहा--- ’ काकी तो अभी नहीं आयेगी बेटा , आपको मैंने बताया न कि आपकी काकी, भगवान से मिलने ऊपर आकाश गई है । आपको अभी काकी से बातें करनी है, तो इस पतंग पर लिख दीजिये, और इसे आकाश में भेज दीजिये । दादा की बात पर कलुवा खुश हो गया और दौड़ता हुआ, छत पर चला गया, पतंग उड़ाने। यह सब देखकर अमर को समझ में नहीं आ रहा था कि खुश होऊँ या रोऊँ । अमर ने आहत कंठ से चौधरी से पूछा--- चाचा , क्या कलुवा को यह नहीं मालूम कि उसकी काकी मर चुकी है ? चौधरी ने अमर की ओर देखते हुए उदासीन भाव से कहा --- हाँ, बेटा , उसे मालूम है, जिस रात उसकी काकी का देहांत हुआ था, वह अपने काकी के साथ ही सोया हुआ था । सोने से पहले, काकी ने उससे कहा था ---’ तुम जल्दी से सो जाओ, कल हमलोग मंदिर भगवान से मिलने चलेंगे “। इसलिए हमलोग जब उसकी काकी की अर्थी ले जा रहे थे, तब उसने रास्ता रोक लिया था ; यह कहते हुए ,कि काकी को कहीं मत ले जाओ, काकी को मेरे साथ मंदिर जाना है , भगवान से मिलने । तब मैंने उसे यह कहकर चुप कराया था, कि हाँ-हाँ, तुम्हारी काकी, पहले ऊपर आकाश जा रही है, भगवान से मिलने । वहाँ से लौटकर आने के बाद फ़िर मंदिर तुम्हारे साथ जायगी; तब जाकर वह चुप हुआ था ।

उसकी काकी को गुजरे साल बीत गया, लेकिन उस काली रजनी वाली दुष्ट रात्रि की याद उसे आज भी ज्यों की त्यों ताजी है । इसलिए कितनी ही कल्पनाओं में काकी को वह खोजता रहता है, जब भी रेशमी पर्दे से ढ़ँकी कोई डोली देखता है, खुश होकर नाचने लगता है । लेकिन जब डोली दूसरी तरफ़ चली जाती है, तब सिसक-सिसककर रोने लगता है । कुछ समझ में नहीं आता, अभी तो बच्चा है, बहला- फ़ुसला लेता हूँ, लेकिन जब वह बड़ा होगा और काकी को इस तरह खोजेगा, तब मैं क्या कहूँगा ?

अमर ने अपने आँख का आँसू पोछते हुए भर्राई आवाज में कहा--- ईश्वर ने उसकी काकी को उससे छीनकर अच्छा नहीं किया ।चाचा चौधरी ने सहृदयता से भरे हुए स्वर में अमर से कहा---- ’ तुम ईश्वर को कोस रहे हो ; मैं तो कहूँगा, यह अपना-अपना भाग्य है । अमर एक क्षण , चकित नजरों से चाचा की ओर ताकता रहा, मानो, उसे अपने कानों पर विश्वास न हो रहा हो । इस शीतल क्षमा ने अमर का ईश्वर के प्रति पहले से भी दोगुनी भक्ति जगा दिया । अमर उदासीन भाव से जाते हुए, चाचा का पैर छुआ और बोला---’चाचा’ बहुत देर हो गई, अब चलता हूँ ।’ चाचा ने भी ----खुशी रह बेटा ! फ़िर आना, बोलकर आशीर्वाद दिया और जाने भी लगे; पुन: रूककर गंभीर भाव से चाचा बोले---”क्या कलुवा से मिलना है,तो चलो, मैं उसी के पास जा रहा हूँ ।’

छत पर पहुँचकर अमर, कलुवा को छाती से लगा लिया । उस मासूम के गर्म और गुदगुदे स्पर्श में अमर की आत्मा ने जिस खालीपन का अनुभव किया, उसके जीवन में बिल्कुल नया था । मासूम कलुवा का भी छॊटा सा रूप अमर से सिमटकर, ठोस और भारी हो गया , जैसा कि काकी के सीने से लगकर कभी हुआ करता था । अमर, कलुवा के मनोव्यथा दर्द से कराह उठा, और आँसू पोछता हुआ, तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला गया ।

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