Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कौन है यह ममत्व की मूर्ति

 

कौन है यह ममत्व की मूर्ति

घोर निराशा के विषाद में लिपटी
क्षीण, क्षुधित, व्यथित, उपेक्षित
कौन है यह ध्रुव ममत्व की मूर्ति
कंपित कर में छिन्‍न पात्र लिए
प्रति-श्वास मधु भिक्षा को रटती

इसके तृष्णोदधि का तीर कहाँ है
कौन है इसके विनत मुख की संतुष्टि
जिसकी बदल गई है कपादृष्टि
क्या उसे रीति-नीति का ग्यान नहीं है
जो भरी झुरियों के आनन को देखकर भी
होता नहीं नयन, जरा भी द्ववित

इससे पूछो, क्यों यह मृत्ति दीप जलाने को है ठानी
क्या इसे मालूम नहीं, कोटि-कोटि वर्षों से
क्रममय चलता आ रहा, मानव जीवन के
रिश्ते की उजियारी, खोह में खो गई
तिमिर पड़ी है अब यह मनुष्यों की धरती

अब अंधकार के इस घोर अंधड़ में,
दूसरा कौन है काल धीवर के सिवा
जो थामे इस जीवन नैया का पतवार
और कहे, रति अनंग शासित धरती पर
कुछ देर और ठहर जा पथिक, देता हूँ मैं

मधु रस पी ले, शुष्क अधर कर ले गीले
थक जायेंगे चरण तुम्हारे, उस अगम
ऊँचाई के टीले पर जाने से पहले, तू
निज व्यथित जीवन की श्रांति मिटा ले

निर्जल सरित कगारों पर क्‍यों खड़ा है परदेशी
सुनो! दाह की दहकती डारों की फुनगी पर
बैठकर कोयल काली, क्‍या कह रही
यहाँ सब के प्राण से, आकांक्षाएँ हैं लिपटी
जिंदा यहाँ कोई नहीं, केवल साँसें हैं चलती

बदल रहे मानव, बदल रही सोच की प्रवृत्ति
शोभा सुमनों से हो रही नाश की उत्प्पत्ति
अब श्रद्धा की दिव्य ज्वार, मनुज के अंतर रस से
होती नहीं झंकृत, फूट गया है धर्मनीति का
संजीवन घट अब, मनोचित सम्यता से होती निर्मित

औरों का सुख बढ़ा देख, मन हो उठता दुखित
प्राणी निज भविष्य की चिंता में दिन-रात जलता
मानवता को छोड़, कूप तम में निज को कर दिया सीमित
कहता! सृष्टि, जीवन का भारी बोझ लाद दिया सिर पर
जिसे मनुज अब पाता नहीं संभार, छल-छालों से
पाँव छिल जा रहे, कहीं नहीं है उबार
ऐसे में एक और मातृ क्षीर का बोझ उधार
कैसे मनुज कर पायेगा, इस ऋण को उतार

माना कि पुत्र प्राप्ति, एक अबाध उत्सव है होता
जिस पर माँ अपने जीवन का आनंद कोष लुटाकर
अपने आराध्य देवता से कहती, हे ईश्वर! मुझमें इतनी
शक्ति दो, जिससे कि मैं अपने पुत्र को तुम्हारी
अमर ज्योति से स्नान करवा सकूँ, जिससे मेरे
पुत्र को इस धरती पर रोग, शोक कभी छू न सके
दया कर बरसा दो, अपनी सोम सुधा की वृष्टि

लेकिन इस नव युग का मानव
सामाजिक संतुलन को ग्रहण कर
रिश्ते-नातों को रख न सका एकत्रित
माँ के दूध को भार बताकर, खुद
प्रकृति के प्रतिरूप को ही कर दिया दूषित

सही कहा है किसी ने, सतत दूर का तीर सुनहला
भला किसकी आँखों को करता नहीं आकर्षित
मनुज वहाँ अपने मन के सिद्धांतों को बदलकर
स्थूल जगत में निज खुशी को करता मूर्तित

लेकिन जब इसे धारा बहा ले जाती अपने संग
तब हम बैठकर, उस विजन प्रांत में विलखते
सोचते, स्वर्ण रेणु मिल गई कब धरती की
मर्त्य धूलि से, मैं तो व्यर्थ ही अपने जीवन
ज्वाला की अमर तूलि से कर रही थी

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