कवि उठ ,जाग
देह डूबने चला अतल में
रक्त-मांस बचा नहीं कुछ शेष
तुम कहते हो ,कवि उठ-जाग
उपाधानों से शीश उठा
मुँदे द्वार को खोल ,बाहर देख
नंदन वन में है ज्वाल जल रही
लगता नियति के शासन
में है भगदड़ मची हुई
स्वर्ग की सभी शक्तियाँ
एक साथ हुंकार उठी
सबों के शस्त्रों की धारें
भर रही हैं वेग
महा दुर्गंध से साँसें रुद्ध हो रहीं
शत-शत अस्थि-खंड गल ,तैर रहे
रुंड-मुंड हत रज से पट गया है खेत
सूरज पावक धाराएँ बरसा रहा
धरती दीख रही भष्म शेष
तू कवि है, कोई मूरख नहीं
तेरे हाथ में धर्म दीप है
ईश्वर ने तुझको युग धर्म की
माटी से अपने हाथों गढ़ा है
धरती पर उतारने से पहले
कितने- कितने मंत्रों को पढ़ा है
तू मनुज रूप चेतना से विकसित
तू सुधापुत्र, तेरा यग्य अशेष
तू अपनी विभा को अम्बर पर
प्रबुद्ध कर, व्योम को बंदी बना
मरु प्रदाह में छिपे रस को निकाल
रक्त स्नात धरती पर छिड़का
तुझे लहू-मांस की क्या जरूरत
तू अपनी हिम्मत को तलवार बना
यही मेरी मर्जी है
जनता का भी यही है आदेश
तू चाहे तो आँखों से ओझल
दृष्टि के उस पार देख सकता
अतल अंधकार में सुर की सुरभि
जो निद्रित है पड़ी हुई,उसे जगा सकता
तू युग कवि है, केवल शब्दों का गढ़ना
तेरी साधना नहीं कहला सकती
तुझे मनुज जीवन की विश्रृंखलता में
सौन्दर्यता को ढूँढ़कर भरना होगा
जब तक गुंजित मधुकर सा तृण
भावोद्वेलित वक्ष लिए,कक्ष–द्वार पर
खड़ा होकर नहीं मुस्कुरायेगा
तब तक गंधर्वों की यह मोहित भूमि
कहला नहीं सकती, फ़ूलों का देश
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