कविता
युग-युग से, सूर्य-चन्द्र में, नक्षत्र- फ़ूलों में
तृण-द्रुमों में,मनुज मन के अगाध सिंधु में
नील तरंगों में, निखिल सृष्टि में, सर्वत्र
केन्द्र बनकर रहने वाली सर्वमंगले,श्रद्धेया
ऐसी क्या बात हुई,जो तुम छोड़ अपनी नव
चेतनासे जगत को दीपित करना
किसी गुह्य अंधकार में जाकर बैठ गई
मिलन-तृष्णा से फ़ूट रहे, कमल कोषों के
प्रात: का ओस-कण ,लेकर अब नहीं आती
न ही दो कुमुद, जिस नदी में डूब गये
उसके तट पर कोई, सजल रेखाएँ खींचतीं
न ही दूर शिला-खंड पर सारस की जोड़ी अपनी
ग्रीवा कोमोड़े क्यों है उदास बैठी पूछतीं
चिता पर मनुज को लाश बनकर जलता
देख, प्रकृति रोती, मगर तुम क्यों नहीं रोती
पहले तो दूर-दूर तक तुम्हारे वन-कंदराओं में
गमक रही होती थी,रंग-विरंगे फ़ूलों की क्यारी
जिसके शिखरों पर हिमराशि होती थी और
नीचे से बहता था शीतल झरनों का पानी
जिसे पाकर जड़ भी सिहर-सिहर उठता था
सूखे तरु के पल्लव में फ़ूट पड़ती थी लाली
देवता-दानव बारी-बारी से आते थे तुमसे मिलने
परिमल के कण-कण को निज वाणी से रंगनेवाली
हे स्वर्ग सुधे ! अम्बर को भेद, चाँद- तारों को
अपनी रसमयीवेदनाओंमें डुबोने वाली
बताओ, दिवस में सूर्य से, निशि में सुधाकर से
सुधा की बूँदें टपकाने,फ़िर से तुम कब आ रही
आज बर्फ़ की चट्टानों पर सुस्तानेवाला
मनुज, निज को फ़ूलों में चित्रित करता
प्रणय प्रज्वलित,उर में कितनी झंकृतियाँ
उठतीं, कहकर भी कह नहीं पाता,केवल
उलझाये रखता, व्यर्थ की बातों में
उल्टे- सीधे शब्दों की पाँति सजाकर
कहता, लो पूरी हो गई प्रेम कहानी
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