खून के रिश्ते
--- डॉ० श्रीमती तारा सिंह
धन्ना सेठ का बेटा ,पतुरबा बचपन से ही बड़ा धर्मपरायण आदमी था, लेकिन दो-तीन महीने से वह भीषण वेदना में जी रहा था । उसकी सूरत, उसकी अवस्था को शब्दों से अधिक व्यक्त कर रही थी । वह चिंता की सजीव मूर्ति बन गया था , उसका शरीर हड्डियों का ढ़ाँचा था । कभी-कभी अपने जीवन-आनंद को दुर्लभ पाकर वह फ़ूट-फ़ूट कर रोता था । आत्मविश्वास जो कभी पतुरबा के संतोष का पात्र था, उसके चित से लुप्त हो गया था । उसके पिता धन्ना- सेठ , शहर के सभी डॉक्टरों से इलाज करवाये, लेकिन पतुरबा को बचा न सके । आखिर पतुरबा ने एक दिन पौष महीने के त्रयोदशी की रात को दो बजे, इस संसार को अलविदा कह दिया ।
पुत्र के चले जाने का सदमा, पतुरबा की माँ ,’मनकी’ बर्दाश्त न कर सकी, और वह छलांग मारती हुई बहू शोभा (पतुरबा की पत्नी) के पास गई और उसे पकड़कर उसके माँग की सिंदूर धो डाली, चूड़ियाँ तोड़ दी । शोभा रोती रही, चिल्लाती रही, लेकिन उसे जरा भी दया नहीं आई । उसने बहू को घसीटकर घर के बाहर दरवाजे पर ले जाकर पटक दिया , बोली---- कुलक्षणी ! तू मेरे बेटे को खा गई ; तेरे लिए अब इस घर में कोई जगह नहीं है ।
शोभा को अपना कहने वाला,दुनिया में पति पतुरबा के सिवा और कोई नहीं था । वह माँ-बाप को बचपन में ही एक ट्रेन एक्सीडेन्ट में खो चुकी थी । आज तो उसका अंतिम सहारा भी छिन गया । बचपन से ही हर गम को अमृत जानकर पीने वाली शोभा, सास मनकी का पैर पकड़कर काफ़ी गिड़गिड़ाई, लेकिन ’मनकी’ एक न सुनी । हार मानकर शोभा, पति की अंतिम विदाई को देखने के लिए सड़क पर बैठ गई और वहीं रोती-बिलखती रही ।
गाँववालों ने पतुरबा की लाश किसी तरह उसके माता-पिता को समझा-बुझाकर, अपने कब्जे में लिया । जब श्मशान जाने की तैयारी होने लगी, तब जोड़ों की बारिश शुरू हो गई । किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि घर से बाहर निकले ; लेकिन जब भोर होने चला , तब गाँव के बुजुर्ग दादा बंशीलाल बोले ---- माटी बर्बाद हो जायगी, और देरी ठीक नहीं होगी । श्मशान, गाँव से लगभग पाँच किलोमीटर दूर था , साथ ही क्षेत्रफ़ल काफ़ी बड़ा होने के साथ-साथ जनरहित भी था । दूर-दूर तक कोई गाँव –घर नहीं होने के कारण , लोग दिन को भी वहाँ जाने से डरते थे । लेकिन जाना था, सो किसी तरह काँपते-ठिठुरते लोग पतुरबा की लाश को लेकर श्मशान पहुँचे । चिता सजाकर ,पतुरबा की लाश को उस पर लिटा दिया गया । आगे विधि आरम्भ होती कि चारो तरफ़ अंधेरा छा गया । मूसलाधार बारिश शुरू हो गई और गंगा के उस पार से ठंढ़ी उत्तरी हवा, अस्थि-पंजर को तोड़ने लगी । लोग जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे । लगभग आधे घंटे बाद बारिश थमी, तब सभी लोग फ़िर से पतुरबा की चिता के पास आये । तभी किसी ने चिल्लाया----- गजब हो गया, पतुरबा की लाश चिता पर नहीं है, चिता खाली है । धन्ना सेठ छाती पीट-पीटकर रोने लगा, कहने लगा---- मेरे बेटे को कुत्ते-सियाल उठाकर ले गये और नोंच-नोंचकर खा डाले ; अब मैं क्या करूँ ?
तभी श्मशान का डोम आया; उसने बताया---- यह काम कुत्ते-सियाल का नहीं, बल्कि अघोरों का है । वे लोग अपना मंत्र सिद्ध करने के लिए अधजले लाश तक को भी उठा ले जाते हैं, यह तो समूचा था । डोम की बात सुनकर लोगों में हड़कम्प मच गया ।
किसी ने डोम से पूछा--- अब क्या करें हमलोग ?
डोम ने पूछा --- क्या मुखाग्नि हो चुकी है ?
धन्ना सेठ रोता हुआ बोला--- हाँ, वो तो बारिश के पहले हो चुकी थी ।
डोम ने कहा--- तब तो अब क्रियाकर्म ही बचता है ; आपलोग गाँव जाकर , पितरमिलान का काम कीजिये ।
डोम की बात से सहमति जताते हुए, सभी लोग गाँव लौट गये । गाँव लौटकर देखा---- एक आदमी, बिल्कुल सफ़ेद धोती में लिपटा भागा जा रहा है, और गाँव के मर्द, औरतें, बच्चे , सभी उसके पीछे लाठी-डंडे लेकर दौड़ रहे हैं । किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था,कि यह सब क्यों हो रहा है ? तभी वह आदमी ,धन्ना सेठ से जा लिपटा । उसका मुँह जला हुआ था,वह बोल नहीं पाता था, लेकिन इशारे से बताया--- मैं आपका बेटा पतुरबा हूँ ।
पतुरबा का नाम सुनते ही बाकी लोग जान लेकर ,भूत-भूत चिल्लाते हुए उल्टे पैर भागे । धन्ना सेठ भी जान छुड़ाकर भागने लगा, लेकिन वह आदमी, उसके पैरों से लिपट गया और कहा--- आप मुझे पहचानिये , मैं आपका बेटा,पतुरबा हूँ ।
पतुरबा का नाम सुनते ही, धन्ना-सेठ चिल्ला पड़ा--- तो तुम भूत नहीं ।
उसने कहा---- मैं भूत नहीं, मैं अभी जिंदा हूँ । आप इन लोगों से मुझे बचा लीजिये,वरना मुझे भूत समझकर मार डालेंगे ।
धन्ना-सेठ अपना पैर छुड़ाते हुए बोला--- लेकिन तुम्हारी हो मुखाग्नि हो चुकी है,अब तुम मेरा बेटा कैसे हो सकता है ? हिंदू-धर्म , मुखाग्नि होने के बाद , उसे मुर्दा मान लेता है , और मुर्दा किसी का रिश्तेदार नहीं होता , इसलिए तुम कहीं और चले जाओ । मैं तुमको अपने घर नहीं रख सकता ।
पिता के मुँह से ऐसी बातें सुनकर , पतुरबा अवाक रह गया और रोते हुए पूछा--- क्या धर्म, संतान से बड़ा होता है, पिताजी ?
धन्ना-सेठ कोई जवाब न देकर आँखें फ़ेर लिया, मगर लाख यत्न करने पर भी अपनी आँखों के आँसू को बहने से नहीं रोक सका ।
पतुरबा समझ गया; वह पिता का चरण छूकर निर्दयता के साथ बोला ----- जो धर्म मेल न कराकर ,बिखराव पैदा करे , उसे धर्म नहीं कहते, पिताजी ।
फ़िर कहकहा मारकर बोला---- पिताजी, मुझे माफ़ कर दो, जो मैंने आपको समाज के सामने छोटा किया । मुझे चिता से उठकर ,वहीं गंगा में डूब जाना चाहिये था, लेकिन मेरी गलत सोच मुझे यहाँ ले आई । मैं तो सोच रहा था---- ”आप मुझे पाकर हर्षित हो उठेंगे ; गले से लगाकर कहेंगे, तू आ गया बेटा । तेरे बिना मेरी दुनिया अंधकार थी, मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता ; इसलिए मुझे छूकर कसम खाओ,कि अब फ़िर कभी हमें छोड़कर नहीं जावोगे , तब मैं आपकी आँखों से बहते आँसू को ,अपने हाथों से पोछता हुआ कहूँगा, नहीं पिताजी ! अब नहीं जाऊँगा “ ।
पतुरबा अपना हाथ, पिता धन्ना-सेठ के मुँह तक ले जाता, उसके पहले ही धन्ना-सेठ चिल्लाता हुआ, दो कदम पीछे हट गया, कहा---- मुझे छूना मत, तुम मुर्दा हो ।
पिता की बात सुनकर, पतुरबा तत्क्षण चला गया,मगर कहाँ, कोई नहीं जानता ? इस घटना को घटे 20 साल बीत गये ; आज भी धन्ना-सेठ पतुरबा के पिता के नाम से जाना जाता है । लोग कहते हैं, आपने पतुरबा को तो घर में जगह नहीं दी, मगर आज भी पतुरबा के पिता के नाम से जाने जाते हैं । इसे ही कहते हैं, खून के रिश्ते ; जो मरकर भी नहीं टूटते ।
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