Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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किस्मत

 

किस्मत



ओ चित्रकार ! अपने कोरे कागज पर

रंग-  विरंगे,   रंगों सेसँवारकर

तूरेखाओं  में  मुझेमत  उतार

मैंने देखा है,धूमिल छायाओं में निठुर 

किस्मत  को, कैसे भाँवरी  दे- देकर

मनुज  को  नचाती  विविध  प्रकार


कभी   बाल - विहग   सी , जीवन  की

डाली    पर   बैठकर   कलरव   करती

कभीसुख  सुहाग  की छाँव में,ग्रीवा के

नीचे    प्रियतमकी    बाँहें बनती

कभी कहती,अब सुख की घड़ियाँ रहीं कहाँ 

देखते    नहींमनुज  कोग्रासने

सर्वत्र कब्रें  हैं    खुली  हुई

भू- नभ   के  बीच,  हवा  में  है  सुराख़


आधि- व्याधि  बहु  रोग  बन  महाकाल

इसी  राह  से  उतरकर धरती पर आता

झुलस उठे प्राण,जिस मादकता को पीकर

ऐसी  शीतलता को पिलाकर करता प्रहार

वृथा  ही  मुझे  मनुज  जीवन  संगिनी

बताकर, विधु उड़ाता मेरा उपहास




किस्मत  छोड़  दे तू अपनी वाक चपलता

तेरे  तर्क  में  भरी हुई है केवल कुटिलता

अगर   सचमुचकी   तू  निर्णायक  है

तो  बता, सुख  के  नीड़ों  को  विषाद के

अविरत   चक्रवाल  से  कौन  घेरे  रहता 

निशीथ  के  पवन में किसकी उसास रहती

उषा के मयंक में किसका निराश रूप रहता


तेरा  खेल ,काल  से कम नहीं निराला

पहले तो तू,मित्रता के शीतल कानन में

जीने-मरने  की जीवन संग संधि करती

फ़िर  खींच  उसे  कुसुमों की त्रपा,त्रस्त

छाया  से, धूप  में  बाहर  फ़ेंक  देती

जल  रहे  ताम्र  व्योम  को दिखलाकर

झुलस  रहे  तन  पर करती अत्याचार


युग-युग  के  छाया-भावों  से त्रासद

मानवका  मन  न  हो  सशंकित

आँखोंमें  आँखें  डालकर  पूछती

क्या  तू विधु के हाथों है छला गया

जो तेरे रूप-रस-गंध से  झंकृत स्वर्ग-

वर्ण  आभूषण  ताम्बे  का  निकला

जो जीवन  के विजन प्रांत में विलख

रहा  ,   तेरा शिशु पुकार


किस्मत ! तुझको जो कहना था

वह तो तू कह दी,मगर याद रख 

बढ़  जाता मान उन जंजीरों का 

जिससे बँधता इतिहास

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