कोई आकर बैठ जाती क्लांत उदास
जब नील निशा के अंचल में
जग सो जाता , शांत चुपचाप
तब मेरी कामना की मूर्ति बन कोई
स्वर्णाकांक्षा का प्रदीप लिये
कंपित अधरों से मुझे पुकारती
मेरे जीवन नद के मरू तट पर
आकर, बैठ जाती क्लांत, उदास
मुझ से कहती,आती-जाती,स्वर्ग-धरा करती
अब थक चुकी हूँ मैं, मेरे लिए मुश्किल
है उठाना जीवन एकाकी का मूक भार
इसलिए छोड़ धरा की मोह- माया, तुम
चले चलो मेरे संग, धूम कोलाहल,थकावट
मलिन अंचल से दूर, क्षितिज के उस पार
जहाँ नील सागर से बहता रहता शीतल जलधार
जिसमें स्नान कर ,तन की सभी ज्वालाएँ मिट जातीं
नियति उड़ा नहीं पाती, मनुज पुत्र का उपहास
न ही महाकाल , नर मुंडों का बौछार कर
करा सकता, नर शोणित की मूसलाधार बरसात
न ही सृष्टि शिराओं में जीवन, संचारित कर पाती
न ही सोते-जागते बालक,वृद्ध हो जाते दूसरे ही प्रभात
यहाँ शिशिर – सा झड़ता नयनों से नीर
भावी तरु के नीचे, आशा का इंद्रजाल
साँसों को बाँधकर किये रखता अधीर
जगत का शत कातर चित्कार, बधिर का
कान बेधती,प्राणों के निकट प्राण रहता मलिन
विविध प्रहार कामना कर , जगत के उर का
तार छेड़ती, स्वर- लय में दुख गाता गीत
कहता लहरों का यह परिणत जीवन
यहाँ मिलते आहत होकर जलकण
अखिल विश्व का, विष पीती जहाँ सृष्टि,उसमें
अमरशीलता, शीतलता कहाँ से आयेगी
वहाँ हंस - पाँति सा पवन चलता
नीरव मुकुलों में मूर्तित, स्मृतियों की
मालाएँ होतीं,कुहासों के क्षितिज को चीरकर
सूरज नव भविष्य की झाँकी दिखलाता
सीपी के रंग का नभ, नव मुक्ता से भर
सहज हँसता – सा. सुंदर लगता
यहाँ श्रांत पाथ-सा, ग्रीष्म ऊँघता नित
इसलिए चले चलो यहाँ से, हमें नहीं सुननी
पत्रों के अस्फुट अधरों से,दुख पीड़ा का गान
बल्कि हम भी,चूर्ण शिथिलता–सी अँगड़ाकर
क्यों न हो जायें शून्यता में अंतर्धान
वहीं नभ तरु के भव्य अंचल में
लगकर एक दूजे से गले,जुड़ायेंगे प्राण
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