कृष्णाष्टमी
द्वापर युग, भाद्र मास, कृष्णपक्ष अष्टमी को
विधाता की टूटी समाधि, खोले अपना नयन
दानवों की ज्वाला से विकल, जन को
जल रहे गिरि अंचल को, हरित सुख
शीतल करने,गोकुल में,माता देवकी की कोख से
सुंदर श्याम घटा-सी, जनम लिये वसुदेवनंदन
कारागृह मंदिर हुआ, सो गये पापी प्रहरीगण
साक्षात जगतपिता को बिठाकर सर पर
बाबा वसुदेव चल पड़े मथुरा, मित्र नंद के घर
यमुना की ओर देख अलौकिक रूप श्याम का
यमुना जी स्वागत में हाथ जोड़कर खड़ी हो गई
तरंग भावुक हृदय हार लिये
उछल - उछलकर छूने लगा, प्रभु का चरण
सुनकर , प्रभु के अवतरित होने की खबर
दिशा- दिशा में फ़ैल गयी खुशी की लहर
पल्लवों में लाली फ़ूट पड़ी,सूखे तरु मुस्कुरा उठे
नव कुंज गुहागृह , सुंदर हृद से भर गया
जीवन घट में पीयूष सलिल बहने लगा
तरुपात थिरकने लगे, तितलियाँ निज पंखों में
भरकर खुशियों का सौरभ उड़ने लगीं
नव छवि, नव रंग, नव मधु से जीवन गया भर
अखिल इच्छाओं का संसार,प्रभु प्रेम से गया भर
शुकि - शुक, हंस - हंसिनी, मृगी- मृग, अलि-कलि
सुरभि - समीर, किरण - पतंग प्रेममय हो गये
मुकुलों में छिपी सुंदरता,फ़ूलों में निकल हँसने लगी
मेहँदी के उर की लाली ,उर पर ही गयी ठहर
अंतर पा प्रीति परस अदृष्य
खोजता था जिसे आँखें बंदकर
जिनकी महिमा गाते, थकते नहीं
हिमवत, सिंधु, समय, नदी - नद
जिनकी बाँहों में दिशाओं सी फ़ैली हैं कामद
वे बाँधकर पैंजनी पाँवों में, ठुमकी-ठुमकी
चल- चलकर, सबके नयन को सरसाने लगे
धन्य हुई, मथुरा की माटी
गोकुल वृंदावन, स्वर्गधाम हुये
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