Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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लाल चुनरी

 

लाल चुनरी
संध्या हो गई थी, गाँव के लगभग हर घर से धुएँ के काले बादल उठने लगे थे| रीता (रूपा की माँ) बरसात में लकड़ियों के मेह जाने के कारण, चूल्हा सुलगाने में उद्विग्न हो रही थी| उसे समझ नहीं आ रहा था कि आगे क्या करूँ, तभी उसे ऐसा लगा कि यदि रूपा के पिता (ज्ञानचंद) इन लकड़ियों को छज्जे के नीचे रखे होते, तब आज मेरी यह दुर्दशा नहीं होती| गुस्से में रीता अपने पति के चरित्र, उसके सद्गुणों और सत्कार्यों की इतनी कुशलता से उल्लेख किये जा रही थी, मानो पतिभक्ति में जीवन की ऐतिहासिक गंभीरता का रंग आ गया हो| इसमें संदेह नहीं कि उसके एक-एक शब्द से क्रोधाग्नि टपक रही थी|
तभी ज्ञानचंद बैलों को भूसा डालकर आँगन में आये| पत्नी के मुँह से निर्दय बज्रप्रहार सुनकर, उसे सुखद पुष्प-वर्षा की तरह जान पड़ी| उसके ह्रदय को थोड़ा दुःख जरूर पहुँचा ,लेकिन तुरंत ही हदय में नई आकांक्षाएँ तरंगें मारने लगीं| वह सोचने लगा -- ‘अब तक मैं जो सोच रहा था कि मैं लक्ष्यहीन जी रहा हूँ, ऐसी बात नहीं है| मुझमें तो विपुल संपत्ति का खजाना है| तभी रूपा दरवाजे पर से भागती हुई माँ-माँ चिल्लाती, रीता के पास आई|
रीता, रूपा की डबडबाई नज़रों की ओर देखकर पूछा--- क्या सब ठीक तो है?
रूपा विलाप करती हुई बोली---- माँ, मेरा लाल गमछा कहाँ है?
रीता ने, झटपट बेटी को गोद में उठाकर चुमते हुए कहा---- बेटा! तुम्हारा वो लाल गमछा, गलती से खेत जाते बख्त तुम्हारे पापा को मैंने दे दिया था| सच तो यह है बेटा, सुबह जब तुम्हारे पापा खेत पर जा रहे थे, उस बख्त अंधेरा था| मुझे रंग समझ नहीं आया, मुझसे गलती हो गई, मुझे माफ़ कर दो| मैं कान पकड़ती हूँ, दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी|
रूपा, माँ पर दयाकर बोली---- ठीक है|
रूपा को संतुष्ट पाकर, रीता के मुँह से एक ठंढी साँस निकली, मानो उसने जीवन का एक जंग जीत लिया हो|
रीता ने कहा---- मैं अभी गमछा लेकर आती हूँ, तब तक तुम कमरे में जाकर बैठो| आँगन में ठंढ बढती जा रही है, सर्दी लग जायगी| मैं यूँ गई और यूँ आई|
रूपा निराशापूर्ण स्नेह की दृष्टि से माँ को दरवाजे की ओर जाते हुए निहारती रही|
रीता दरवाजे पर जाकर पति ज्ञानचंद को जोर-जोर से आवाज देकर बुलाई, बोली---- कहाँ थे आप, मैं कब से ढूंढ रही हूँ?
ज्ञानचंद---- मैं तो यहीं था, कहो क्या बात है?
रीता---- रूपा का वो लाल गमछा कहाँ है, अभी दीजिये| वह रो-रोकर परेशान है|
सुनते ही ज्ञानचंद, गमछे को लेकर रूपा के पास दौड़ा आया और रूपा को गोद में उठाकर पूछा---- क्या तुमको लाल गमछा ही चाहिये?
रूपा सिर हिलाकर बोली---- हाँ|
सुनकर ज्ञानचंद की आँखों से आंसू निकल आये|
रूपा, पिता को रोते देख पूछी---- पापा! आप रो क्यों रहे हैं?
ज्ञानचंद---- बेटा! मेरी आँखों में धूल पड़ गया था, अब निकल गया|
रूपा, पापा के हाथ से झटपट गमछा ली, और दुलहन बनकर खेलने लगी|
ज्ञानचंद वहीँ पलंग पर पड़ा, चिंता, नैराश्य और विषाद के सागर में गोते लगाने लगा, उसके मन को सिर्फ एक ही भावना, आंदोलित कर रही थी कि एक दिन रूपा सचमुच लाल चुनर ओढ़कर जब मेरे घर से चली जायगी, तब उसके बगैर मैं ज़िंदा कैसे रहूँगा? अपने सौभाग्य के सुरभ्य उद्यान में, सौरभ वायु और माधुरी का आनंद उठा चुका एक बाप, अपने खिले उद्यान को दूसरे के हवाले कैसे करेगा ? जिस पौधे को मैं अपने स्नेह-जल से सींच रहा हूँ, उसकी एक-एक मधुर स्मृतियाँ, मुझे मार डालेगी| उसके आने की जब वाट निहारूंगा, तब खुद को मानसिक व्यग्रता में भी स्वस्थ पाऊँगा! मुझे आज से ही एक अपराधी जैसा, उस दिन के दंड की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी|
ज्ञानचंद की मनोवृति, किसी परीक्षार्थी-छात्र सी हो रही थी, जो पुस्तकों से प्रेम तो करता है, पर ज्यादा ध्यान उन्हीं भागों पर देता है, जो परीक्षा में आ सकते हैं| दिन बीते, बरस बीता; इंतज़ार की घड़ियाँ ख़त्म हुईं| रूपा जवान हो गई, ज्ञानचंद को उस कल्पना जगत से प्रत्यक्ष में आना पड़ा| 20 साल के इच्छे का घरौंदा, एक पल में पद्दलित हो गया|
टिहरी गाँव के वासी रामानुज मास्टर का बेटा, प्रताप सिंह के साथ, ज्ञानचंद जब रूपा की शादी पक्की कर घर लौटा, तब उससे बड़ा दुखी और उससे ज्यादा सुखी, दुनियाँ में कोई नहीं था| सच ही कहा गया है, मानव-ह्रदय एक रहस्यमय वस्तु होता है, तभी तो वह लाखों की ओर आँख उठाकर नहीं देखता, कौड़ियों पर आँख फिसल जाती है| रूपा की माँ, धनाढ्य लोगों को छोड़कर, एक गरीब परिवार के लडके को अपनी बेटी के लिए उपयुक्त समझ कर शादी तय कर दी| जानकर रूपा कटार के नीचे बलिदान के बकरे की तरह तड़पने लगी, भविष्य उसे डराने लगा| वह सामने से बढ़ती आ रही गरीबी की परछाहीं में खुद को विलुप्त होते देखने लगी| उसके अंतराल की गहराइयों से एक लहर सी उठती जान पड़ी, जिसमें उसका अपना अतीत जीवन, टूटी हुई नौकाओं की भाँति उतरता हुआ दिखाई दिया| वह रुँधे कंठ से, माँ से जाकर कही---- माँ शादी की इतनी जल्दी भी क्या है, कुछ दिन और ठहर जाती| अभी मेरी उम्र ही क्या है?
रीता, मुस्कुराती हुई बोली---- बेटा! जीवन पर्यंत कोई माँ-बाप अपनी बेटी को घर में नहीं रख सका| राजा-रंक, सबों को एक दिन अपनी बेटी को विदा करना होता है| मैं सोचती हूँ, यह शुभ काम जब करना ही है तो कल क्यों, आज क्यों नहीं?
चिंतित और बेवशी की बोझ से दबी, रूपा व्यथित कंठ से बोली---- माँ! मैं तो उसके घर जाकर गरीबी के पिंजरे में बंद, उस पक्षी की तरह फड़फड़ाती रहूँगी, जो चाहकर भी, कभी इन तीलियों को तोड़ नहीं सके|
रीता ने एक बार रूपा की तरफ देखा और आँखें फेर ली| रूपा कुछ देर तक खड़ी रही, बाद अपने कमरे में चली आई और पलंग पर लेटकर सोचने लगी---- माँ-बाप का कहा मानना, कुल-मर्यादा की पहली उत्तम चीज होती है, उस पर लोग प्राण तक न्यौछावर करते आ रहे हैं| तो फिर मैं अपनी ख़ुशी न्यौछावर करने से क्यों भाग रही हूँ? क्षोभयुक्त विचारों ने रूपा को इतना मसोसा, कि उसकी आँखें भर आईं| वह खाट पर बैठकर, दीवार की तरफ मुँह कर रोने लगी| उसे अपनी विवशता पर इतना दुःख कभी नहीं हुआ| अपनी स्वार्थपरता, अपनी इच्छा-लिप्सा, अपनी क्षुद्रता पर इतनी ग्लानि कभी नहीं हुई थी| आत्मरक्षा की अग्नि जो एक क्षण पहले प्रदीप्त हुई थी, इन आँसुओं से बुझ गई| वह माँ के पास जाकर मूर्तिवत खड़ी हो गई| यह देखकर रीता प्रेमानुराग से विह्वल हो बेटी का सिर अपनी गोद में रखकर अश्रुप्लावित नेत्रों से उसे पुचकारने लगी| उसने सतृष्ण नेत्रों से रूपा को देखा, तो पाया---- उसमें क्षमा-प्रार्थना भरी हुई है; मानो कह रही हो, माँ मैं कितनी श्रद्धाहीन और जड़भक्त हूँ, कि तुम्हारे प्यार और बलिदान की कदर न कर सकी| तुमने मेरे लिए क्या नहीं किया, मेरे ह्रदय में शक्ति का अंकुर जमाया, जनम दिया ,अपनी मधुमिश्रित बातों ने स्वर्गीय आनंद दिया| मेरी आँखों पर परदा कैसे पड़ गया? मैं इतनी कृतघ्न कैसे हो गई, माँ मुझे माफ़ कर दो, और अभी से तुम्हारी ख़ुशी ही, मेरी ख़ुशी होगी| इसलिए तुम शादी की तैयारी करो|
रीता प्रेमोन्मत्त हो बोली---- देखो बेटा! लड़का एक नहीं अनेक है, पर किसी न किसी कारणवश, सभी छूटते चले गये| मगर जिसे मैं पसंद की हूँ, वह घर का तो गरीब है, पर तुमको वह बहुत खुश रखेगा, कारण वह एक उच्च विचार का लड़का होगा, तभी तो उसे इतना जल्द विदेश जाने का मौका मिल रहा है| साथ ही, उसके साथ जिसकी शादी होगी, उसे भी साथ लेकर जायगा| तुम विदेश में रहोगी, नई दुनिया, नये लोगों से मिलोगी, पैसे की कमी तो रहेगी नहीं, जीने के लिये और क्या चाहिये?
माँ की बात सुनकर रूपा पुलकित हो गई| उस आनन्दमय जीवन का ह्रदय, उसकी कल्पना में सचित्र हो नाचने लगा| उसकी तबीयत लहराने लगी| रूपा दो-तीन मिनट तक विचार में मग्न रही, फिर अपना विचार प्रकट करती हुई बोली---- माँ तुम जो उचित समझो, करो; मैं तुम्हारे साथ हूँ|
लग्न तय हुआ, बरात आई; वेद-मन्त्रों के साथ रूपा की शादी संपन्न हो गई| शादी के मंडप में जल रहे चम्पई अग्नि-ज्वाला से रूपा का मुख कुंदन की तरह दमक रहा था| सबकी आँखें उसी के मुख-दीपक की ओर लगी हुई थीं| लेकिन रूपा की नजर नई-नई साड़ियों के बीच, उस लाल चुनर को ढूढ रही थी, जिसे उसने बचपन में गमछा स्वरूप अपने पिता से पाया था| माँ ने भी बार-बार कहा था-रूपा! इस लाल गमछे से सौ गुना सुंदर लाल चुनर तुम्हारे लिए शादी में तुम्हारा वर लेकर आयगा|
इधर आँगन में राग-रंग था, उधर कमरे में बैठी रूपा, उदास-मायूस उस चुनर के इंतज़ार में व्याकुल हो रही थी| उसे लग रहा था, माँ की बातें कहीं झूठी न निकले| जब उससे और धैर्य न धरा गया, तब वह उन्माद की दशा में उठकर अपनी माँ रीता के पास आई, बोली---- माँ! क्या कर रही हो? माँ समझ गई, वह बेटी को खींचकर, अपनी गोद में बिठाकर फूट-फूट कर रोने लगी, बोली---- बेटा! मैं हारी, तुम जीती; तुम्हारा कहना सही था, कि रिश्तेदारी और दोस्ती अपनी बराबरी में होनी चाहिए, अन्यथा यह टिकती नहीं|
मगर अब कुछ करने का नहीं था, रूपा बिना चुनर के ससुराल विदा हो गई| ससुराल का माहौल देखकर रूपा डर गई| रूपा एक ऐश्वर्यशाली पिता की पुत्री थी| यहाँ उसे इतना आराम भी न था, जो उसके मैके के नौकरानियों को था| उसका पति विजय, स्वार्थसेवी था| परिवार के लोग लोभी, निष्ठुर, कर्तव्यहीन थे| उसके पति के शब्दों से रूपा का ह्रदय छलनी रहा करता था| विजय, हमेशा रूपा को लज्जित और अपमानित करना अपना धर्म बना लिया था| इन सब कारणों से रूपा की दशा उस पतंग की तरह हो गई थी, जिसकी डोर टूट गई हो, अथवा उस वृक्ष की तरह, जिसका जड़ कट गया हो| यद्यपि उसे पति की स्वार्थभक्ति से घृणा थी, मगर वह एक गर्वशीला, धर्मनिष्ठा, संतोष और त्याग के आदर्श का पालन करने वाली नारी थी| अत: उसने इस भाव को अपनी पति-सेवा में कभी बाधक नहीं बनने दिया|
रूपा आज 60 की हो चुकी है, और विजय 70 के; उम्र के साथ विजय के व्यवहार में काफी बदलाव आ गया है| जब लोहे की गरमी दूर हुई, उसमें ठंढक आई, तब जाकर ह्रदय में पाश्चाताप का भाव उदय हुआ| अपने उस व्यवहार के लिए विजय, आज बहुत पछताते हैं, मगर खुद को न कोसकर ,उस घड़ी को कोसते हैं, जब यह सब घट रहा था, कहते हैं---- ‘तुम प्रेम की देवी हो, वात्सल्य की मूर्ति, निर्दोष, निष्कलंक; यह मेरा दुर्भाग्य है, कि मैं तुम्हारा कदर नहीं कर सका|
रूपा प्रेमोन्मत्त होकर बोली---- भगवान के लिए ऐसी बातें मुँह से नहीं निकालो|
रूपा की बातें सुनकर इतने दिनों से जलती आ रही निष्ठुरता और अश्रद्धा की अग्नि, विजय की आँखों से बह रहे आँसुओं से बुझ गई| विजय रोता हुआ बोला---- रूपा, हम दोनों पति-पत्नी के सुरभि पर्वत के नीचे निर्मल अंधकारमय गुफा था, जिसे मैं जानता नहीं था| मैंने तो स्वच्छ जल समझकर अपना पैर बढ़ाया था, लेकिन कीचड़ में फंस गया; जिसे मैं उज्ज्वल, कंचनामय, लहराता हुआ जल समझ रहा था| उसी ने मुझे धोखा दिया; आज मैं अपनी निर्लज्जता, और क्षुद्रता पर बहुत दुखी हूँ| जानती हो रूपा, जब से स्वार्थपरता का परदा मेरे नेत्रों पर से हटा है, मैं बस यही सोचता हूँ, कि मेरी तरह अगर तुम भी अधर्मी, स्वार्थी बन जाती, तब क्या होता? निराशा के यातनापूर्ण अकेलेपन में, मुझे बारी-बारी से सभी बातें (तुम्हारे साथ किये गए दुर्व्यवहार) डराती हैं| रूपा, मेरे दिए जुल्मों को तुमने कैसे सहा? तुम्हारी जगह मैं होता, तो शायद नहीं सह पाता| मेरे जैसा कुकर्मी शायद ही कोई दुनिया में होगा? शर्म आती है यह सोचकर कि जो रात-दिन मेरे सुख-दुःख की साथी बनकर, एक पैर पर खड़ी रहती थी; उसी के साथ इतना कठोर व्यवहार| रूपा, ईश्वर तो माफ़ नहीं करेगा, और करना भी नहीं चाहिए; पर तुम मुझे माफ़ कर देना|
रूपा---- ताड़ गई कि आज प्रेम ने उन्मत्तता का पद ग्रहण किया है और कदाचित यही उसकी पराकाष्ठा है|
उसने मुस्कुराकर कहा---- विजय! अब भी तुमसे मेरी एक शिकायत है?
विजय काँप उठा, भर्राई आवाज में पूछा---- वह क्या है?
रूपा ने कहा---- विजय, शादी की चुनरी बाकी है, कब ला दोगे?
विजय उठा और जाने लगा|
रूपा ने पूछा---- कहाँ चले?
विजय---- चुनरी लाने; किसी का बकाया उधार नहीं रखना चाहिए|
रूपा---- अभी नहीं, अब चुनरी ओढ़कर घूमने के दिन बचे कहाँ, लेकिन हाँ, मेरी लाश पर एक चुनरी जरूर ओढ़ा देना| मगर ख्याल रहे विजय, उसका रंग लाल हो; मेरे पिताजी के उस गमछे की तरह जिसकी याद मुझे आज भी तड़पाती है| 


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