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Dr. Srimati Tara Singh
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लांछन

 

लांछन
किशोर अपने मित्र रमेश से कहता है---- जानते हो रमेश! अपना पड़ोसी कुंवर तो यही जानता है कि उसकी पत्नी शीला घोर पतिव्रता है; राह चलते उसकी आँखें जमीन पर से ऊपर उठतीं नहीं, लेकिन उसे यह नहीं पता, कि शीला का मन फुदकने वाली चिड़िया है, जो कभी इस डाल, तो कभी उस डाल, जब उसके ऑफिस चले जाने के बाद वह बन-ठन कर, खिड़की पर खड़ी होती है| तब मोहल्ले के शोहदे उसे देख-देखकर जानते हो, क्या बोलते हैं?
रमेश (किशोर का पडोसी) रक्त-शोषक दृष्टि से किशोर की तरफ देखकर कहा---- नरक में जाओगे तुम, ऐसी बातें मुँह से निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती, किसी और के बारे में बोला होता, तब मान भी जाता, तुम शीला बेटी के बारे में बोल रहे हो; धिक्कार है तुमको| अरे! वह तो एक देवी है, देवी, ईश्वर की परम भक्तिन, नींद खुलते ईशोपासना में लग जाती है| माँ काली की मूर्ति को नहला—धुलाकर, फूलमाला चढ़ाकर पहले आरती करती है, बाद अपने पेट-पूजा की व्यवस्था करती है, और तुम उस पर यह लांछन लगा रहे हो, कि वह बदचलन है| तुम जीते जी नरक में जावोगे|
रमेश की बात ख़तम होते ही किशोर जोर-जोर से खिल-खिलाकर हँसने लगा| किशोर के इस कदर हँसने का आशय रमेश को समझाने में देर न लगी, कि इस हँसी में व्यंग्य के कितने जहर घुले हुए हैं| रमेश कुछ देर चुप रहा, फिर कहा---- क्या अपने जीवन को रसमय बनाने के लिए तुम्हारे पास केवल एक ही उपाय है| चलो अच्छा है, आत्मविस्मृति, जो एक क्षण के लिये भी अगर संसार की चिंताओं से मुक्त कर दे, तो क्या कम है?
रमेश की बात सुनकर , किशोर की आँखों से आग झरने लगा| वह रक्त शोषक नजरों से, रमेश की ओर देखकर बोला---- तुम क्या सोचते हो, अपने स्वार्थवश मैंने, कुंवर की धर्मपत्नी का यह सब बोलकर अहित किया|
रमेश गंभीर हो कहा---- बिल्कुल ठीक कहा तुमने, एक अबला पर लांछन लगाकर, जो किया, उसके प्रायश्चित में आगे का जीवन मुँह की कालिमा धोने में लगा दो, तो उपयुक्त होगा|
रमेश की तरह, किशोर तार्किक और व्यवहार चतुर नहीं था, इसलिए वहाँ से चले जाने में ही उसने अपनी भलाई समझी|
एक दिन किशोर की बेटी सुनीता से अचानक रास्ते में रमेश की मुलाक़ात हो गई| सुनीता, देखते ही दूर से बोली---- हेलो चाचा! कैसे हैं?
रमेश सकपकाते हुए कहा---- ठीक हूँ, बेटी, बाजार जा रहा हूँ दवाई लाने, और मन ही मन कहा---- हमारी सभ्यता का आदर्श इतना ऊपर उठ चुका है, कि अब अपने पिता समान बड़े बुजुर्ग का पैर छूने में घृणा होती है| इससे तो अच्छी शीला है जो देखते ही घूँघट खींच लेती है, और दोनों हाथों से पैर छूकर, आशीर्वाद माँगती है| क्या ही कुलीन परिवार से है! ऐसे गऊ को बदनाम करना पाप है; अपना घर तो सँभालता नहीं, चला है, दूसरे की बहू-बेटियों की निंदा और बदनाम करने|
दोपहर का वक्त था, कुंवर (शीला का पति) रमेश के घर आया और बातों-बातों में बताया---- चाचा, शीला कई दिनों से बीमार है, इसलिए एक बार चलकर देख लेते| मेरे पिताजी का कहना है कि रमेश चाचा को अगर एक बार दिखा सको, तो वह जल्द ठीक हो जायगी, क्योंकि वे एक पढ़े-लिखे वैद्य हैं| उन्होंने रोग-दुःख की ही तो पढ़ाई की है, इसलिए मेरी आपसे निवेदन है, कि एक बार आप चलकर शीला को देख लेते|
रमेश मुस्कुराते हुए कहा---- चलो, मैं अभी आता हूँ|
कुंवर---- अच्छा कहकर घर जाने लगा, और मन ही मन यह सोचता रहा---- सचमुच पिताजी ने जैसा बताया था, वैसे ही हैं रमेश चाचा| ऐसे आदमी के लिए धन तुच्छ है, वरना पूछते, कि मेरी फ़ीस जानते हो!
सचमुच सभ्यता से ऊँचा, धन का स्थान नहीं होता| जो आदमी पैसे को भगवान समझते हैं, वे सभ्य नहीं हैं| ऐसे मनुष्य संसार के लिए अभिशाप हैं, और समाज के लिए विपत्ति|
रमेश चाचा जब, किशोर के दरवाजे पर पहुँचे, देखा ऊपर की खिड़कियाँ बंद हैं| अचरज हुआ, जो खिड़कियाँ कभी बंद नहीं होती थीं, वह बिलकुल बंद है| उन्हें चिंता होने लगी, उनका विस्मित कदम बढ़ता हुआ आँगन में एक चारपाई के पास जाकर रुक गया, देखा---- शीला लेटी हुई है ,उसकी आँखें खुली हैं, मगर शरीर अचेत है| उन्होंने उसे धीरे से आवाज दी---- शीला! मैं रमेश चाचा; पहचान रही हो बेटा| सुनते ही जाने शीला में कहाँ से वो ताकत आ गई, कि वह बिजली की तरह उठकर बैठ गई| घूँघट निकाल कर मुँह ढँक ली और शिकायत के स्वर में बोली---- चाचा! जिस निधि को पाकर मैं विपत्ति को संपत्ति समझकर जी रही थी, जिस दीपक से आशा, धैर्य और अवलंब पा रही थी, मुझे क्या पता था कि वह मेरे अंधकारमय जीवन का दीप नहीं है| उसकी बातों को सुनकर रमेश चाचा विचलित हो उठे और पूछा---- बेटी! यह आज तुमको क्या हो गया है? अभी तुम बीमार हो, कमजोर हो; ऐसी हालत में इस कदर की बातें करना ठीक नहीं है| लेकिन शीला,जिस विभूति को पाकर, ईश्वर की निष्ठा और भक्ति, उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गई थी; वह विभूति उससे जबरन छिन गई थी| वह अस्थिर नेत्रों से रमेश की ओर देखकर बोली---- चाचा! आप कहते हैं, चित्त को शांत रखो और बताओ, तुमको क्या हुआ है? चाचाजी---- क्या आप भी यही जानते हैं, जो मैं जानती हूँ?
रमेश, निराशा से विकल हो बोला---- तुम क्या जानती हो बेटी?
अशक्त, क्षीण शीला बोली---- मैं पथभ्रष्ट और पत्नोन्मुखी हूँ|
रमेश, समझ गया---- यह आग किसने लगाया है?
रमेश, सम्मान भरे शब्दों में कहा---- पानी पर जब तक कोई आवरण है, उसमें सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँच सकता, अर्थात लज्जा, शील, और सभ्यता की लौह दीवार को, संस्कारी नहीं तोड़ सकता| यह काम तो किशोर जैसा भ्रष्ट और निष्ठुर ही कर सकता है| शीला आँखें नीचे किये बोली---- मगर वे आपके मित्र हैं|
रमेश, उपेक्षा भाव से कहा---- साँप में विष है, यह जानते हुए भी हम उसे दूध पिलाते हैं| भोग-लिप्सा आदमी को स्वार्थांध बना देती है, लेकिन उसकी आत्मा इतने कम उम्र में इतनी अभ्यस्त और कठोर कैसे हो गई, कि एक निरपराध की आत्मा की ह्त्या कर दे| मैं उससे अभी जाकर बात करता हूँ, सब ठीक हो जायगा|
शीला, भर्राई आवाज में पूछी---क्या ठीक हो जायगा, चाचा? आप किसके पास जा रहे हैं, आप तो स्वयं एक डॉ. हैं, दवाईयाँ तो दिये नहीं, मैं कैसे ठीक हो जाऊँगी?
रमेश---- न्याय-बुद्धि, किसी युक्ति को नहीं स्वीकारता, तुमको मृत्यु के पंजे में पहुँचाने वाला, मेरा दोस्त किशोर है, जो पूजा, तप, व्रत को अपने जीवन का आधार बताता है; विलास ने उसके विवेक -बुद्धि को सम्मोहित कर दिया है| उसे कभी ख्याल भी नहीं आता है, कि वह जो कर रहा है, वह पाप है| उसके हाथों कितने के घर टूट रहे हैं? कितने बेगुनाह बेसमय मौत पाये हैं? उसे एकांत विचार का अवसर ही नहीं मिलता, वह मनोरंजन के लिए नित्य नया सामान जुटाता है| यह सब कर उसे अपना सौभाग्य, सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता है| उसके हाथों कितने घरों की बर्बादी हुई, कितने घर लुटे, कितने घर टूटे; उसे खुद भी पता नहीं होगा| मगर तुम आज के बाद किसी प्रकार की चिंता छोड़ दो| सब ठीक कर दूँगा, किशोर से मिलकर|
एक शाम, ऑफिस से लौट रहे किशोर से रमेश की भेंट हो गई| उन्होंने किशोर का हाल-समाचार पूछा| किशोर ने कहा---- सब ठीक है, मगर बताया आप कहाँ से आ रहे हैं? रमेश ने बताया---- शीला बहुत बीमार है, कमजोरी इतनी है कि दो-चार वाक्य बोलने के बाद ही वह शिथिल हो जाती है| दश-पाँच मिनट अचेत पड़ी रहती है, कदाचित वह किसी चिंता की चिता पर लेटी हुई है| यह सब देखने के बाद मुझे भीषण प्राण-वेदना हो रही है|
रमेश क्षुधित नेत्रों से, किशोर की तरफ देखकर बोला---- शीला की मनोव्यथा, उसकी व्यथा से कहीं अधिक विदारक है| यह कहते, रमेश का चेहरा उतर आया| आँखें बोझिल हो आईं, बोला --- तुम नहीं जानते, उसने तो पतिव्रता की वेदी पर अपने को अर्पित कर रखी है| पति को पास न पाकर, उसे लगता है, यह घर सूना है, यहाँ अंधेरे का वास है| तब वह उसे ढूंढने खिड़की पर जा खड़ी होती है, ताकि उसकी यादों के चेहरे के उजाले में रह सके और तुमने उस पर लांछन लगाया कि वह बदचलन है| रमेश फिर कोमलता में ,डूबे हुए स्वर में बोला---- ईश्वर ने जिसे ह्रदय-परख दी है, वह आदमी का पोशाक नहीं देखता, उसके गुण और चरित्र देखता है| तुमको कैसे समझाऊँ कि प्रत्येक प्राणी के अन्दर मान-सम्मान की क्षुधा होती है, इसलिए कि यही तो हमारे आत्मविकास की मंजिल है| हम उस महान सत्ता के सुक्षांश हैं, जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है| इसलिए कृति, सम्मान, आत्मोन्नति और ज्ञान की ओर हमारी स्वाभाविक रूचि है| मैं तो इस लालसा को बुरा नहीं मानता, अर्थात् शीला अगर खिड़की के पास खड़ी रहती है, अपने आत्म-उत्सर्ग के लिए, न कि किसी और की चाह में| तभी ऑफिस से लौट रहे कुंवर की नजर, रमेश चाचा और किशोर पर पड़ी| वह नजदीक आकर, पहले तो दोनों का पैर छूआ, फिर पूछा---- चाचा, आप दोनों यहाँ, कोई बात है क्या?
रमेश, कुंवर का बिना कुछ जवाब दिए वहाँ से यह कहते हुए चल दिया कि मैं ज़रा जल्दी में हूँ, फिर कभी बात करूँगा| किशोर के चले जाने के बाद, रमेश चाचा, कुंवर को समझाते हुए बोले---- मिथ्या संसार रचने वाले प्राणी से दूर रहो, अन्यथा वह आज शीला पर, कल तुम पर, कुछ ऐसा ही लांछन लगा देगा क्योंकि उसकी कुटिल नीति का साहस दिनों-दिन बढ़ता चला जायगा| उसकी हिंसक मनोवृतियाँ और शक्तिवान होती चली जायेंगी|
रमेश कुछ देर चुप रहा, फिर आहत कंठ से कहा---- शीला की कर्तव्यपरायणता, प्रेम, उसकी धर्मपरायणता, उसकी पतिभक्ति, उसके स्वार्थ-त्याग, उसकी सेवा-निष्ठा, कौन से गुण की मैं तुम्हारे आगे प्रशंसा करूँ, समझ नहीं आता; वह पति-वंचित होकर सड़क पर भटकती फिरे, क्या तुम यह चाहते हो? क्या इतनी निष्ठा, इतना त्याग, इतना विमर्श किसी देवी-प्रेरणा का परिचायक नहीं है? हम अक्सर दूसरों की बातों में आकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं और किसी के झूठ पर पश्चाताप करके, भोग-विलासयुक्त जीवन को ठुकराकर फटेहालों का जीवन बिताने के लिए, किसी और को अपराधी ठहरा देते हैं| ऐसा करके कुंवर, तुम दुनिया के सामने न्याय का कोई ऊँचा आदर्श तो नहीं उपस्थित करना चाहते हो? धर्म और आदर्श की जगह, बहुत आदर की जगह होती है| अपनी आँखें तो सही देखती नहीं, तुम दूसरों की निगाह से शीला को देख रहे हो, जो घोर पाप है| 


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