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Dr. Srimati Tara Singh
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लोकतंत्र और चुनाव

 

लोकतंत्र और चुनाव 

 ----- डॉ० श्रीमती तारा सिंह


लोक प्रशासन में लोक का अर्थ ‘सरकार’ है  | इसके तहत सरकार को जनता और देश से जुड़ी हर प्रकार के प्रयोजन को एक नीति द्वारा क्रियान्वित करना होता है | आम तौर पर प्रशासन , एक सार्वलौकिक प्रक्रिया भी है , और क्रिया भी, जो समूह, परिवार, राज्य या सामाजिक संघों में होता है | लोक प्रशासन का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से सरकारी कार्य-कल्पों से है | इसके अंतर्गत वे सभी प्रशासन आ जाते हैं , जिसका जनता पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है , अर्थात लोक या जन द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का जनहित में प्रशासन | इसकी प्रक्रिया चुनावों से जुडी रहती है ; दूसरे शब्दों में जनतांत्रिक शासन प्रणाली को चलाने के लिए , जनता का स्वच्छ और ठीक ढंग से जनहित में कार्य करने वाले सुयोग्य प्रशासकों का चुनाव , अपने मतदान के आधार पर करना पड़ता है | इस तरह लोक – या जनतंत्र और चुनाव का सम्बन्ध यही प्रमाणित करता है कि , जिस तरह शरीर और उसे जीवित रखने वाली वायु का है ,दूसरी तरह से हम यह भी कह सकते हैं , कि लोकतंत्र में चुनाव ही वह शक्ति और माध्यम है, जिसके द्वारा हम अपने हितों की रक्षा के लिए प्रशासन में हस्तक्षेप कर सकते हैं | ढीले और दागी एवं निष्क्रिय प्रशासन को हटाकर चुस्त प्रशासन बना सकते हैं | इस तरह चुनाव, शासन व्यवस्था की आत्मा होती है |

             लोकतंत्र में चुनाव सत्ता-प्राप्ति का माध्यम होता है, तो सत्ता परिवर्तन का साधन भी ; इसलिए चुनाव प्रक्रिया में सत्तारूढ़ और विरोधी, दोनों दलों के लिए आकर्षण का केंद्र होता है | सत्तारूढ़ दल का मन निश्चिंत तभी रहता है , जब वे जनता से किये वादों को पूरा करते हैं | सिर्फ समस्याओं में उलझाये रखकर ,जनता के साथ वादा-खिलाफी कर, उनके हितों से खिलवाड़ कर , शासन एक बार ही संभव होता है, दोबारा नहीं ; क्योंकि अगर नेता होशियार है, तो जनता ,मूर्ख नहीं है | विरोधी दलों पर यह चुनौती रहती है , कि वे सत्तारूढ़ दल की  विफलताओं को जनता के सामने किस तरह परोसते हैं , क्योंकि आजकल , माल से अच्छा पैकेट का लोक-लुभावन होना बहुत जरूरी होता है | इसलिए भी चुनावों को लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति के संघर्ष का एक अमोघ अस्त्र कहा गया है | मगर तब यह चुनाव , बहुत खतरनाक हो जाता है , जो सिर्फ सत्ता- प्राप्ति के लिए हो | कारण चुनाव, सत्ता दल और विरोधी दल , दोनों पर अंकुश लगाना होता है  और यह तभी संभव है , जब सामाजिक, राजनीतिक आदि सभी पहलुओं से जनता जागरूक हो  | तभी सरकार में ( देश हो या प्रांत ) ऐसा व्यक्ति जायगा जो वास्तव में नि:स्वार्थ होगा | ऐसे व्यक्ति ही देश के भले की खातिर अपनी सुख-शान्ति त्याग सकता है | लोभी, स्वार्थी, अपराधी अपने हित के आगे , देश-समाज , किसी को गुरुत्व नहीं देता | जागरूकता और सावधानी के अभाव में किया गया चुनाव , मात्र नाटक होगा  और देश के साथ धोखा, जो कि विगत कुछ वर्षों में प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल चुका है , और यह भी प्रमाणित हो चुका है कि चुनाव जनता को बरगलाने और धोखा देने का साधन है | 

चुनाव से पहले , राजनीतिक दल जनता के साथ बड़े-बड़े लोक-लुभावन वादे कर ,चुनाव जीत जाते हैं और सत्ता में आकर ,फिर उसी जनता पर अत्याचार शुरू कर देते हैं | कभी तो टैक्स बढ़ाकर , कभी निकम्मी बन, युवकों के भविष्य से खेलकर , कभी भाई-भतीजावाद , स्वार्थ-सिद्धि और अपने सगे का भरण -पोषण कर , हर तरफ से अपने स्वार्थ की सुरक्षा को वे लोकतंत्र की सुरक्षा बताते हैं | पाँच वर्षों में आने वाले अपनी सात पीढ़ियों की आर्थिक सुरक्षा कर पूछने पर कहते हैं , मैं हरिश्चन्द्र का वंशज हूँ , देश का पैसा खाना हमारे लिए विष खाने के बराबर होगा | चुनाव में सुरा-सुंदरी , धनबल का सहारा लेकर सत्ता में पहुंचते हैं और खुद को गांधी का अनुयायी बतलाते हैं | इसलिए ऐसे चरित्र- भ्रष्ट लोगों से सावधान रहकर ही जनता को अपना नेता चुनना चाहिए | 

                आजकल इस तानाशाही की दौड़ में देखा जाता है | अधिकतर शासन की बागडोर किसी एक आदमी के हाथ केन्द्रित हो जाता है | ऐसे शासन पद्दति को एकतन्त्र कहा जाता है | इसे पुराने राजतन्त्र और सामंतशाही का आधुनिक रूप भी कह सकते हैं | इनमें राजा की तरह

राष्ट्र की सर्वोच्च सत्ता एक व्यक्ति में केन्द्रित हुआ करती है | इसे तानाशाही भी कह सकते हैं, इस पद्धति में तानाशाह या शासक अपने पद या महत्त्व को बचाए रखने के लिए , अपनी इच्छा के अनुसार ही समूचे प्रशासनतंत्र का गठन करता है | उच्च और महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करता है, जो उसके कहे पर चले, बिन कहे तो अपनी जगह से एक इंच भी न हिले | इस प्रकार कुल मिलाकर समूचे सत्ता की चाभी एक व्यक्ति के पास रहती है | ऐसे प्रशासक का, शासन करने का तरीका भी सोचने लायक होता है | वे जनता या देश संबंधी किसी भी काम की प्रक्रिया को इतनी  धीमी कर रखते हैं , पूरा नहीं होने देते हैं तब तक, जब तक कि उसकी उपयोगिता और महत्व ,दोनों समाप्त न हो जाए | वैयक्तिक मामले में तो व्यक्तियों की मृत्यु के बाद भी मामले लटके रहे देखे जाते हैं | 

               देखा गया है , कि जनता कि अज्ञानता वश  कभी-कभी जब अशिक्षित , अनपढ़ व्यक्ति भी सत्ता की सीढ़ी से महत्वपूर्ण पदों पर पहुँच जाते हैं , तो उनमें स्वयं कार्य-व्यापार चलाने की क्षमता तो रहती नहीं | अत: समूची विभागीय व्यवस्था और कार्य-प्रक्रिया ,नौकरशाही का शिकार होकर रह जाती है | निहित स्वार्थी नौकरशाह जनहित में किये जाने वाले कार्यों का लाभ भी आमजन तक नहीं पहुँचने देते ,परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के ऐसे भ्रष्टाचारों का जन्म होता है ,जिसका भोग,जनता मूक व्यथित हो करती रहती है |  

                गणतंत्र , लोकतंत्र या जनतंत्र तीनों में ही आम नागरिक को अपना विचार बोल-बोलकर प्रकट करने की आजादी रहती है, यहाँ तक कि वह शासन की आलोचना भी भयमुक्त होकर कर सकता है | लेकिन तानाशाही में यह स्वतंत्रता नहीं मिलती ; वहाँ व्यक्ति, प्रेस, सबों को तानाशाह के स्वरों में बोलना पड़ता है | यहाँ व्यक्ति -स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं रहता ; मगर देश के सर्वोच्च आसन पर बैठे व्यक्ति या फिर कुबेरों को पूरी छूट रहती है | ऐसी शासन-पद्धति में ये पूरी तरह सुरक्षित रहते हैं | यही कारण है कि तानाशाही शासन अधिक दिन नहीं चलता, लोग उब जाते हैं ; उनका दम ऐसे शासन में घुटता रहता है, जो बहुत ही दुखप्रद होता है | धीरे-धीरे उनके दिलों में , इस तरह के घृणित शासन के प्रति उबाल आना शुरू हो जाता है और मौक़ा पाते ही जनता उसका त्याग कर देती है |

             जहाँ तक लोकतंत्र की सफलता और तानाशाही की असफलता का सवाल है, भारत में ये दोनों ही पद्धतियाँ असफल रही हैं | तानाशाही का ही परिणाम, विश्व की मानवता , दो युद्धों की भीषणता के रूप में भोग चुकी है | आज भी जापान ( हिरोशिमा ) ,उसके दुष्परिणाम से मुक्त नहीं हो सका है | चिंता की बात तो यह भी है कि जन तंत्रीय देश भी अपने मुल्क पर कोई गुणात्मक प्रभाव, प्रभावी ढंग से नहीं दिखा पा रहा है | इसने भी आप जनों को पोषित और पीड़ित किया है , जो लोकतंत्र का मजाक है | इस तरह हम देखते हैं कि ,शासन -पद्धति व्यवस्था जो भी हो, उसमें आम जनता का भला हो, तभी वह सार्थक व्यवस्था कहला सकती है |

              वर्तमान चुनाव प्रणाली में अनेक प्रकार के सुधारों की आवश्यकता है ----

( क ) लोकतंत्री व्यवस्था में चुनाव , भारी-भरकम खर्च न कर सस्ता होना चाहिए ; ताकि साधनहीन, सच्चरित्र  और जमीं से जुड़ा हुआ व्यक्ति चुनकर सत्ता में आये ; जो गरीबों की , किसानों की तथा जरूरतमंद लोगों की आवश्यकता को महसूस कर सके | मगर, दुर्भाग्य ही कहिये, कि आज का चुनाव , धन-बल पर होता है , जो व्यक्ति जितना पैसा खर्च कर सकता है, उसका वोट उतना अधिक पक्का होता है | यही कारण है कि, जनता के दुःख-दर्द को सुनने , समझने वाले लोग कम ही सत्ता में पहुँच पाते हैं | हमारे देश के कुछ गण्य-मान्य लोग , तथा समाज सुधारकों ने बहुत कोशिश की, कि चुनाव निष्पक्ष और साफ़ हो, लेकिन वे पूरी सफलता प्राप्त नहीं कर सके , बावजूद हम आशा करते हैं, कि चुनाव प्रक्रिया द्वारा शासन परिवर्तन में कुछ तो अच्छे लोग आयेंगे | ऐसे जनता जागरूक हो चुकी है , राजनीतिक दलों के जुमलों-वादों  को समझने लगे हैं | समस्त बुराइयों का निराकरण तो असंभव है, पर नहीं से कुछ तो, हाँ होगा |

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