माँ
-----डॉ० श्रीमती तारा सिंह
नारी के लिए, माँ शब्द बड़ा ही अनूठा है ; अनूठा हो भी क्यों नहीं,नारी,प्रकृति जो कही गई है । कहते हैं , नारी स्वर्ग और धरती के बीच वह महासेतु है, जिस पर होकर आदमी उस अदृश्य लोक से दुनिया में आता है ।
संतान सुख के लिए गरल पीने वाली, तथा प्रसव वेदना सहनेवाली माँ जब अपने संतान के दुख से दुखी होकर चीखती है, तो उसके पुकार पर व्योम का हृदय दरक जाता है, सूरज सहम उठता है । जब वह जानती है कि वह माँ बनने वाली है, तब उस आगत के कल्पना - सुख में उसकी जागृति और स्वप्न की दूरी मिट जाती है । अपना सुख तृणवत नगण्य लगने लगता है । वह अपने गर्भ में पलने वाले संतान के लिए कल्पना शृंग पर चढ़कर कहती है ---हे देव ! मैंने कभी सुरम्य उत्तुंग स्वप्न को नहीं छुआ । मैं चाहती हूँ ,सूर्य की किरणों को समेटकर विधु की कोमल रश्मि-तारकों की पवित्र आभा को पी लूँ, जिससे अपरूप अमर ज्योतियाँ मेरे गर्भ में पल रहे संतान के शोणित में,हृदय प्राणों में समा जाय । त्रिलोक में जो शुभ,सुंदर है; सब एक साथ मेरे आँचल में बरस जाये, जिसे मैं समेटकर अपने आने वाले संतान के अधरों में जड़ दूँ ।
मातृपद को पाकर भी एक माँ कितना क्लेश सहती है ; संतान की देखभाल करते-करते तन शिथिल हो जाता है, यौवन गल जाता है, ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है । बावजूद प्राणों में इन्द्रधनुषी उमंग कम नहीं होता है ; आँखों से सोई, स्वप्न कुंजों में जगी रहती है; माँ न तो गरीब होती है, न ही अमीर ; न ही सवर्ण और अछूत होती है । माँ की कोई जाति नहीं होती ,माँ के आँचल में स्वर्ग की हवा खेलती है । माँ के कदमों को चूमना, मंदिर के चौकठ को चूमने समान है । दुनिया में वह बड़ा तकदीर वाला है, जिसे माँ की खिदमत का मौका मिला । माँ जब बूढ़ी हो जाती है, तब भी उसकी डूबती आँखों में संतान के लिए ममता का सागर उमड़ता रहता है । औलाद की हर गलती को माफ़ करने वाली माँ ,कभी अपने संतान के साथ सौतेला व्यवहार नहीं कर सकती ; संतान भले सौतेला हो जाय । माँ के बारे में लगभग सभी धर्मों में एक विचार है; माँ का स्थान पिता से ऊँचा है ।
कहते हैं, हुजूर नबी अकरम ने एक बार देखा कि एक महिला बिल्कुल बदहवास रोती,विलखती दौड़ी भागी जा रही है, उसे अपने सर के दुपट्टे तक का होश नहीं है । हुजूर नबी अकरम ने सहाबा किरान से पूछा,” यह औरत इतनी परेशान क्यों है ?’ सहाबा ने बताया,’ हुजूर ! उसका बेटा गुम हो गया है । वह बेटे के लिए पागल हो चुकी है, और परेशान भी । वह हर किसी से अपने बेटे के बारे में पूछ रही है कि उसके बेटे को किसी ने देखा है ? ’ हुजूर नबी अकरम ने कहा—’क्या इसका बेटा अगर मिल जाय तो क्या उसे आग में डाल देगी ?’ सहाबा किरान ने कहा,’ रसूल अल्ला ! कभी नहीं, वो एक माँ है, और माँ कभी अपने संतान को जलती
आग के हवाले नहीं कर सकती, चाहे संतान कितना ही बुरा क्यों न हो ! वह अंतिम साँस तक उसका अनिष्ट नहीं चाहेगी ।’
माँ क्या है, जिसने माँ को देखा नहीं, माँ की ममता को परखा नहीं,उसके लिए बताना, किताबी आधार पर अनुभवपूर्ण, मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता । प्राणी जन्म लेते अमरत्व की कामना शुरू कर देता है, जब कि वह जानता है,जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु अमर है । इसके सिवा दुनिया में कुछ भी अमर नहीं है । जो बना, उसका विनाश एक दिन निश्चित है ,लेकिन हमारे वेद-पुराणों के किस्से- कहानियों में जरूर ऐसे चरित्रों का उल्लेख मिल जाता है, जिन्होंने अपने कर्मों से अमरत्व हासिल किया । कोई विरला ही होगा,जिसे अमर होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा और उसने ठुकरा दिया हो । महाभारत में एक बेटा,अपनी माँ की खातिर अमृत को ठुकरा दिया ।
कथानुसार कश्यप ऋषि की दो पत्नियाँ थीं ; एक का नाम कदू और दूसरी विनता । कदू हजार नागों की माँ थी ; विनता, तेजश्वी गरुड़ की माँ । दोनों सगी बहनें थीं,बावजूद दोनों एक दूसरे को को नीचा दिखाने में लगी रहती थीं । एक दिन दोनों में बहस छिड़ी, कि समुद्र-मंथन से जो घोड़े मिले, उनका रंग कैसा था ? वनिता ने कहा----बिल्कुल सफ़ेद ; दूध की तरह । मगर कदू के पुत्रों ने उस सफ़ेद घोड़े, उच्चैश्रवा के पूँछ से लिपट-लिपटकर आंशिक रूप से काला बना दिया था । शर्त के अनुसार विनता का कदू की दासी बनना तय हो गया ;लेकिन यह खबर जब गरुड़ ने जाना तो उसे बहुत कष्ट हुआ । उसने अपनी माँ को दासता से छुटकारा दिलाने के लिए अपने सौतेले भाइयों के पास गया और पूछा, ’भैया मुझे अमृत चाहिये” । नाग भाइयों ने कहा —’अनुज ! अमृत तो स्वर्ग में इन्द्रदेव के कब्जे में भारी सुरक्षा के बीच रखा हुआ है, उसे प्राप्त करना संभव नहीं होगा “ । लेकिन गरुड़ अपने जान की बिना परवाह किये, इन्द्रदेव के साथ, भीषण युद्ध कर अमृत को लेकर पृथ्वी पर भागे लौट आये । रास्ते में उन्हें भगवान विष्णु मिले । विष्णु ने जब महा पराक्रमी गरुड़ को देखा”अमृत पाने के बाद भी उसे खुद पान नहीं किया ?’ शर्त के अनुसार उसे अपनी माँ को पिलाना था, जिसे पीकर उसकी माँ दासता से मुक्त हो जायगी । बेटे की माँ के प्रति ऐसा निश्छल मातृप्रेम से प्रसन्न होते हुए, विष्णु गरुड़ को अमरत्व का वरदान देकर अपने वाहन का भार सौंप दिये; तब से गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन रूप में आज भी स्थापित हैं ।
निर्विवाद रूप में माँ की यह विशेषता है कि वह जन्मदात्री है ;सृष्टि सृजन करती है । जीवन की समूची रसधार अपने पति और संतान पर उड़ेल देती है, लेकिन पाश्चात्य परम्परा एवं
संस्कृति का प्रभाव, भारत के संयुक्त परिवार की प्रथा को समाप्त कर दे रही है । वर्तमान समय में समाज अर्थ-प्रधान हो गया है । रिश्ते-नाते व माँ-बाप , अब परिवार में नहीं आते ; अब तो सिर्फ़ पत्नी और बच्चे आते हैं । अपनापन गायब होता जा रहा है ।
आज इतिहास के पन्नों से लेकर वर्तमान तक समूचे काल खंड को खंगाला जाय ,तो समय के सीप में इने-गिने संतान मिलेंगे, जो राम सरीखा माँ-बाप के बचन को निभाने वनवास (कष्ट) स्वीकार किये हों अर्थात उन्हें खुश रखने के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट सहने को तैयार हैं । आजकल तो बेटा, माँ-बाप को पत्नी के आते ही,घर में वनवास दे देता है , जिससे कि स्त्रैण प्रवृति संतान अपनी पत्नी को खुश रख सके । ऐसी माँ कदम-कदम पर तिरस्कृत और बहिष्कृत जीवन बिताने के लिए विवश रहती है । पत्नी के मुख से निकला शब्द-शब्द ब्रह्म होता है , पत्नी जो रोती हुई कह दे – ’तुम्हारी माँ मेरा भला नहीं चाहती ।’ पति, पत्नी के आँखों के आँसू को न पोछकर, पी जाता है और कसम खाता है—’जो तुम्हारा भला नहीं चाहे, मेरा उससे रिश्ता नहीं हो सकता ’। उसके बाद तुरंत शुरु हो जाता है ,घर में बेटे की तांडव लीला, जिसे देखकर पत्नी इतनी खुश हो जाती है, मानो उसके मनोरथ रूपी पौधे को पानी मिल गया हो या फ़िर उसकी कटुता की बढ़ती हुई बेल, सुंदर डाली का सहारा पा गया हो ।
जहाँ धर्मधुरीण राम, वनवास आरम्भ से पहले अपनी माँ कौशल्या के चरण-स्पर्श कर,जब वन जाने की अनुमति माँगते हैं, तो कौशल्या रो पड़ती हैं । माँ की पीड़ा, श्रीराम भलीभाँति समझते थे ,फ़िर भी माँ की संतावना के लिए उन्होंने माँ को गले से लगाकर कहा---’हे माता ! पिताजी मुझे वन का राज्य दिये हैं, जहाँ सब प्रकार से मेरा बड़ा काम होने वाला है । इसलिए माँ, तुम मुझे प्रसन्न मन से आग्या दो,जिससे मेरी वनयात्रा आनंद –मंगल हो । मेरे स्नेह वश तुम रोना मत; तुम्हारे आशीर्वाद से मेरा वनवास हर प्रकार से शुभ होगा । चौदह साल बाद लौटकर फ़िर तुम्हारे चरणों का दर्शन करूँगा । तुम आँख के आँसू पोछ लो, इसे मत बहने दो ’।
लेकिन आज , अधिकतर संतान ,माँ –बाप का घर-साम्राज्य, दोनों के जीते-जी छीनकर पत्नी को सौंप देता है ; बूढ़े माँ-बाप का चरण छूना तो दूर, नजर से देखना तक पसंद नहीं करता है । संतान को अपने कलेजे का टुकड़ा कहने वाली माँ,के कलेजे का टुकड़े करने में भी संतान नहीं हिचकिचाता । बावजूद अपने जीवन की रसधार ,संतान के लिए संचित रखती है । ईश्वर ऐसे संतानों से नि:संतान रखे, ऐसी आँख क्या जो पीड़ा दे !
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