महासेतु है नारी
कहते हैं, जब से यह दुनिया बनी
तब से सुरभि सँचय कोश सा
तीनों कालों को खुद में समेटे
प्रेरणा, प्रीति ओ करुणा की अदृश्य
उदगम-स्थली कही जानेवाली नारी
कवि के तमसा वन के कूलों में
वनफूलों में, नभ-दीपों में हँसती आई
मगर नर स्वेच्छा तम को भेदकर
शरद की धवल ज्योत्स्ना सी
धरा मंच पर कभी निखर न पाई
शीतल मस्तक, सिर नीचा कर, समग्र-
जीवन, विश्वनद में सुंदर, सरस हिलोर
उठाने कोकनद की धारा-सी बहती रही
जर्मी हिली, पहाड़ हिला, मगर यह धुव मूर्ति
जग कोलाहल के बीच रहकर भी
मूकता की अकम्प रेखा सी स्थिर रही
जब देखा धूसर संध्या को
क्षितिज से उतर कर धरा पर
कालिमा बरसाने आ रही
प्रलयभीत मनुज तन रक्षा में
ज्वलनशील अंतर लिये
शून्य प्रांत की ओर भागा जा रहा
तब यह सोचकर, कि विश्व व्यवधान
को पाकर निर्झर तजता नहीं
अपने गति-प्रवाह को कभी, विश्व
ज्वाला में मोम-सी गल बहती रही
और जाते-जाते निज मुख को
विस्मृति की गोद में रखकर
कह गई जग के विस्तीर्ण सिंधु
के बीच एकांत दीप-सा, नारी का उर
केवल नर जीवन की चेतना का मधुमय
स्रोत नहीं है, बल्कि धरती और
आसमां के बीच महासेतु है नारी
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