Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं बूढ़ा पथिक इस जग का

 

मैं बूढ़ा पथिक इस जग का


मैं बूढ़ा पथिक इस जग का

मेरा न यहाँ अपना कोई

चलता हूँ मैं अकेला ही, मेरी

राह निज अश्रुजल से गीली


हिलते हड्डी के ढाँचे पर

जीवन का यह बूढ़ा पंजर

कभी ज्योति तमस, हिम आतप

मधु पतझड़ का था रंग स्थल


झाँझर-सा मुख निकला बाहर

कहता, जन्म शील है मरण

मर-मर कर जीवन रहता अमर

नवल मुकुल मंजरियों से भव

फिर होगा शोमित, आई है पतझड़

लघु-लघु प्राणियों के अस्थि-मांस से 

बना है यह जग –घर 

न्योछावर है, इस पर आत्मा नश्वर 

गर्मी ,सहित,वह्नि ,उल्का के भू पर 

कैसे रह सकता मनुज कलेवर 


जवानी के स्वर्ण-पिंजरे में बंद

मानव आत्मा दीखता तो सुंदर

मगर दुख, पीड़ा से पीड़ित, एकाकी

की शैय्या पर रहता चिर विह्वल


सोचता, नव प्रभात से चुंबित

रक्‍त कमल-सा यह जीवन

जिसके अधरों के शतदल पर

है मदिर प्रवाल का अधरामृत

नीलकमल-सी नील आँखें

स्वर्ग प्रीति-सी होती प्रतीत


पलक झपकते अदृश्य हो छुप जाता

जीवन की जिंदगी से यह कैसी प्रीत

रक्त सुरा संगीत बनाकर, उर-उर का

करता स्पंदन; जड़, चेतन एक ही पलकों

के पल्‍लव पर रहता है पल्‍लवित


आज राह पूछती कोयल प्यारी

ऋतुपति का कुसुम नगर कहाँ है री

कैसे बतलाऊँ मैं, उसे जब तुम

भुलाकर अपनी सुध-बुध, सोयी

थी पी के संग, तब मौत साँस

गिन रही थी, तुम्हारे मघु जीवन की


है भरा आज मेरी आँखों में

जग की दी पीड़ा का पानी

देखो कैसे जीवन का स्वर्ण महल

टूटकर बिखरने जा रहा घूलि में

मानो सैकत में खोती जा रही सरि

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