Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मानव! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी

 

मानव! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी


आकस्मिकता के विदीर्ण कण से बना

लाचार मनुज की करुण पुकार

जब क्षितिज कूल से टकराकर

धरा पर लौट आने लगी बार-बार

तब, मरण सेवित मनुज सोचने लगा

एक तो सृष्टि ने, मर्त मनुज के लिए

तिमिरपूर्ण संसार गढ़ा, उस पर

पीड़ा की कसौटी पर न खड़ी उतरे

नियमहीन जन्म-मरण को भरा


सोचा! मनुज मन की वेकली, अंतर के

अंधेरे में उठकर तड़प-तड़पकर रह जायेगी

न पूछ सकेगा कभी, तुमने मनुज को धरा पर

न भेजकर, अनंत में रहने को क्यों नहीं दिया

जहाँ दीप्त पौरुष का चमत्कार, सूरज बन चमक रहा

यहाँ तपन में शीतल समीर है मंद पड़ा


मृतकों के इस अभिशप्त महीतल पर

अनास्तित्व धू- धू कर नाच रहा

वाष्प बन उड़ जाऊँ न कहीं

सिंधु उत्ताल, चिंतित हो गरज रहा

जीवन के उषा काल में ही त्राहि-त्राहि

कर त्रस्त जीवन मिटा जा रहा


अनाहूत ही तुमने डरपोक, निबल

असहाय मनुज को, अम्बर से उड़ाकर

अपने राशिकृत, रहस्य मरीचिका में

लाकर खड़ा कर दिया, और कहा

मनुज आँखें खोलो, कुमुद फूलों को

अपनी अंजली में भर-भरकर खेलो.

भाग्य तृथा वृथा रहे न वंचित

बह रहे जीवन रस को छू लो


देखते नहीं नित नर्तन में, निरत प्रकृति

कैसे भू-प्रांगण को अपने शुभ्र हास्य

से अभिषेकित करने गल-गलकर

सिंधु जल संग मिलकर बही जा रही

तुम भी इस ज्योतिर्मयी सरिता में स्नान कर

पाप-पुण्य की तरह पावन हो जाओ

जीवन नदिया के चटुल धार में जीर्ण है देह-तरी


पीड़ा के अधिकारी मनुज, यह मत पूछ, तुमको

अपनी पीड़ा कहने का अवकाश क्‍यों नहीं मिला

ऐसे भी विधि के विधान में, त्रुटियाँ निकालने का

अधिकार, देवताओं के सिवा तुमको किसने दिया

पूछना है तो जगत की बात पूछो, मन को

हर्षित करता रंग और खुशबू, उसकी बात करो

अम्बर को छानने, इन्द्रपुर के सम्मान की

धज्जियाँ उड़ाने का अधिकार, तुमको किसने दिया


देखते नहीं अतल अनंत शून्यता के

महाकाश में, सूरज-चाँद-तारे सभी

काल की लतिका-सा कैसे लटक रहे

जिससे लगकर क्षण मुहूर्त संवत

शताब्दी सभी बूंदों सा झूल रहे


मनुज जिस व्योम को छूने ललक रहा

जिसे अपने जीवन उत्स का उद्गम समझ रहा

वहाँ कोई अमृत की सरिता नहीं बहती

वह तो पंचभूत का मिश्रण है जो

तारे बन जुगनू-सा चमक रहा

और सिंधु के जाल फेन-सा कुटिल काल

अपने दुर्घर पदचापों से, धरती को कंपित कर

सृष्टि को मिटाने दौड़ लगा रहा


बहुत सोच-समझकर मैंने विश्व को रचा

तलवासी के विषक्त श्वासों की गति से

हवा घनीभूत हो रुद्ध न हो जाये

मैंने तलवासी जलचर को जीवन पर्य॑त

केवल निकलने उतराने का अधिकार दिया

वरदान बने जीवन मनुज का, सब

ताप शांत हो, वन को हरित, शीतल बनाया

अंधेरी गहरी नदियाँ में बसता, आदिम तम

सोच वृथा ही तुमने सृष्टि को बदनाम किया

 


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