Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मानवता के शत्रु

 

मानवता के शत्रु

नृशंस, आदिम, व्यभिचारी, लोक विनाशक
युग विद्रोही, दुराचारी, बर्बरता का प्रतिनिधि
मनुष्यता से वंचित, पशुओं से भी कुत्सित
रक्‍तभोगी, मनो मस्तिष्क रोगी
न हिन्दू , न मुसलमान, न ईसाई
न द्रविड़, न आर्य, न परंपरा का प्रहरी

मुट्ठी में संघार लिए, हिंस्र सभ्यता के हुंकार में
चिल्ला-चिल्लाकर, जग मानव से कह रहा
सूरज बरसा रहा है धरा पर पावक धाराएँ
अग्नि जीवन कंदर्प को भस्मसात कर रही
लगता भू जीवन के, एक वृत का होने वाला है
समापन, धरा पर घोर विभीषिका है छानेवाली
लोग भाग रहे हैं अपनी ही छाया के भय से
प्रकृति के तत्त्वों में है भगदड़ मची हुई

जन प्रांगण में निर्जनता प्रतिफलित हो रही
महामृत्यु मुँह फाड़ कर खड़ी हँस रही
प्रकृति भूतवाद का युग-दर्शन कराकर
लोक जीवन समुद्र को आंदोलित कर रही
नव द्वंद्वात्मक जाल में उलझा मनुज, रीति-
नीति की शत मर्यादाओं को तोड़ नहीं पाता
आकाश बेलि सा फैला पाप-पुण्य
स्वर्ग-नरक के तर्कजाल में उलझा
विद्वित प्राण लिए, जीवन से पराजित
पत्रों की छाया में छुपी खुशी को खोज रहा

छाया से अपरिचित, गंध जग से अग्यान
नियति का दास, मनुज को नहीं -मालूम
जीवित स्वप्नों के लिए मुर्दों को राह देना होगा
पत्तियों पर गूँजती ओस की आवाज समझना होगा
तभी बुद्धि में नम का सुवास समझ में आयेगा

मुक्त हो रहा इन्द्रासन महाव्याल से
वहाँ बैठकर अपना ध्वज फहराना होगा
फिर मनुज देहों के रक्‍त-मांसल से
धरती का पुनः नव-निर्माण करना होगा
जब तक धरती के रज में भावुक हृदय का
उर्वर मस्तिष्क एकाकार नहीं होगा
तब तक भू का आनन नहीं बदलेगा

देखना मनुज तन का यह भष्मावशेष
चिरकाल भष्मावृत बनकर नहीं रहेगा
एक दिन इस भष्मावशेष से मनुज
फिर से जनम लेकर जी उठेगा
इसमें है भूत सत्य का अमृत अंश भरा हुआ
यह विध्वंसक एक दिन निर्णायक बनेगा

नव-संस्कृति का अंतःस्मित जब नव किरणों से मंडित होगा
तब जीवन के संघर्षों की प्रतिध्वनियाँ, हाहाकार में
बदलकर मनुज को विद्वित नहीं करेगा
स्वप्नों के घर जीवन आकांक्षाएँ नहीं खेलेंगी
बल्कि जीवन रज को पाकर धरा कुसुमित रहेगी
जग के सुख-दुख, पाप-ताप, तृष्णा-ज्वाला से
अलग होकर जी रहा समाधिस्थ हिमालय
शांति आत्मानुभूति में लय हो जाएगा

जब तक युग खांडहर का
एक भी भग्नावशेष बचा रहेगा
कोई न कोई लेकर अपने हाथों में
युग दीपक यहाँ आता रहेगा
अपने अंतर की सृजन प्रेरणा से
सूजित कर, गंधहीन उसास भरता रहेगा

इसलिए आकुल उच्छवासों के सौरभ को
नीरवता के मुकूलों में मूर्तित करना होगा
नवल चेतना की जब बरसेंगी स्वर्णिम किरणें
धरा पर, तब मनुष्यत्व की फसल
स्वर्णिम मंजरियों से विभूषित होगी
जब तक सुख के तृण, दुख के स्वर से चुनकर
प्राण कामना का पंकिल मुख नहीं सजायेगा
तब तक तैलचित्र से उभरी
जीवन की अभिलाषा का शैल छायांकित रहेगा
उड़ते दुख के मेघों में, सुख वन के अनगिनत
वर्णां के स्वर सा कंपित रहेगा।



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