Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मर्णोत्सव

 

मर्णोत्सव

       ज्येष्ठ की झुलसाती गर्मी और शिशिर की हाड़ कँपा देने वाली रात में जब विश्व की वेदना, जगत की थकावट, क्षितिज के नीरव प्रांत में सोने चली जाती, धर्मा तब भी मरण शय्या पर दवा विहीन पड़ी अपनी जीर्ण-कंकाल बीमार माँ के सिरहाने में सूखे काठ सा बैठा, आँसू बहाता रहता| कई बार मन में आया, जीवन भर की संचित ईमानदारी के इस अभिमान-धन को माँ की दवा के लिए बेच देना अच्छा होगा| मगर दूसरे ही पल बीमार माँ की बंद आँखें उसे रोक लेतीं और उसका आत्माभिमान झनझना उठता, तब वह वहीं बैठा-बैठा ऊपरवाले से कहता, ‘हे अनंत ज्वाला के सॄष्टिकर्ता, तुम किस तरह के करुणानिधान हो? मेरी माँ पैसे के अभाव में एक पुड़िया दवा के लिए तड़प-तड़पकर क्षण-क्षण मिटती जा रही है, और तुम दीनानाथ कहलाते हो| तुमने निष्ठुर दुखों को सहने के लिए मानव हृदय सा कोमल पदार्थ क्यों चुना? तुम्हारे दिल में जरा भी दया की जगह है, तो मेरी माँ को फ़िर से पहले की तरह स्वस्थ कर दो| मेरी आँखें उसकी दयनीय हालत को और देख नहीं सकतीं|

      रोज की तरह उस दिन भी सुबह उठकर धर्मा नहा-धोकर ठाकुरवाड़ी से तुलसी-दल लाने जा रहा था, तभी रास्ते में जुम्मन चाचा मिल गये| उसने धर्मा से माँ का हाल-चाल पूछा और अफ़सोस व्यक्त करते हुए कहा, ‘अरे! तुम्हारी माँ अब बूढ़ी हो चुकी है बेटा, उसे चले जाने दो| बेकार में तुम वैद्य-हकीम के पीछे दौड़ते-फ़िरते हो| आगे और कुछ बोलते, तभी बगल के रामटहल चाचा मिल गये| वे अपने मुँह में पान की गिलौरी डालते हुए बोले, ‘बेटा! जुम्मन ठीक ही कहता है, अब दवा-दारू छोड़ो और हमलोगों के भोज का इंतजाम हो जाने दो| कब से हमलोग आश लगाये बैठे हैं| पता नहीं बुढ़िया किसकी उमर लेकर जी रही है, तभी जुम्मन, तपाक से बोल उठा, ‘और किसकी, धर्मा की; देखते नहीं बेचारा सेवा करते-करते आधा हो चुका है| मुझे तो लगता है, कहीं बुढ़िया के पहले धर्मा ही न चला जाय| 

धर्मा दोनों की बात काटते हुए कहा, ‘चाचा! मैं ठाकुरवाड़ी से तुलसी-दल लाने जा रहा हूँ, माँ को पीसकर पिलाना है और वह चलता बना|

रामटहल चाचा ने नाक सिकोड़कर कहा, ‘तुलसी-दल पीसकर पिलाओ या गंगाजल, अब कोई फ़ायदा नहीं, ऐसे तुम्हारी मर्जी|

रामटहल की बातें सुनकर धर्मा ऐसे ठिठककर खड़ा हो गया, मानो उसके कलेजे को किसी ने बेंध दिया हो| उसने ऊपर मुँह उठाकर दीन स्वर में कहा, ‘वाह रे ऊपरवाला! तुमने क्या खूब संसार बनाया, जिंदगी दिया, भूख दिया, मगर जिंदा रहने के लिए रोटी नहीं दे सका| सच और ईमानदारी को व्रत मानकर अपना जीवन निभानेवाला धर्मा, जीवन का मूल सत्य है, इससे विचलित होने लगा| इस आपातकाल में कितने ही अवसर आये, जब उसे अपना जीवन भी भार सा मालूम होने लगा| गाँव का कोई आदमी एक बार भी भूले से उसकी माँ की बीमारी पर अफ़सोस व्यक्त करता तो उसके वदन में स्फ़ूर्ति आ जाती| उसकी जीवन व्यथा जाने कहाँ छिप जाती, मगर दूसरे ही पल फ़िर वही बचैनी, उसे परेशान करने लगी|

     माघ की रात, कड़ाके की सर्दी, आकाश पर धुआँ छाया हुआ था| ढ़िबरी की बाती को ऊँचाकर धर्मा, माँ का माथा छूआ, देखा, ‘माँ के शरीर में कोई हरकत नहीं है, वह किसी अनहोनी की आशंका से विचलित हो उठा, और वह माँ, माँ कर चिल्ला पड़ा| माँ की ओर से कोई उत्तर न पाकर, धर्मा दौड़ता हुआ रामटहल रामटहल चाचा (पड़ोसी) के पास गया और रो-रोकर कहने लगा, ‘चाचा! माँ कुछ बोलती नहीं है|

चाचा बड़े ही इतमिनान से पूछा, ‘कब से बेटा?

धर्मा काँपते हुए कहा, ‘बस, कुछ देर पहले से|

चाचा ने, व्यंग भरे चिंता के बोल बोलते हुए, कहा, ‘बेटा! तो अब मैं क्या करूँ; जाने वाली तो चली गई| अब उसकी अंतिम यात्रा की तैयारी करो; रोने-धोने से तुम्हारी तबीयत खराब हो जायगी| चलो मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ, फ़िर ठिठककर पूछा, ‘हाथ में कुछ है तो, न कि खाली, मलाल|

धर्मा ने रोते हुए कहा, ‘चाचा! माँ की लाश घर में पड़ी है, और पास एक कौड़ी नहीं; कैसे कर माँ का दाह-संस्कार होगा, ले-दे के पिता का बनाया एक कमरे का घर है और कुछ नहीं| 

चाचा, ‘माँ के गहने-गाँठी, वो भी तो होंगे न?

धर्मा, ‘सब बेचकर अब तक माँ का इलाज कराया|

चाचा (रामटहल), ‘कोई बात नहीं, घर तो है, यही क्या कम है? तुम चिंता मत कर बेटा, सब कुछ धूम-धाम से हो जायगा| तुम एक काम करो, जुम्मन चाचा को बुला लाओ|

      धर्मा ने माँ का दाह-स्म्स्कार किया, तेरह दिन तक क्रिया पर बैठा रहा, तेरहवें दिन पिंडदान हुआ| ब्राह्मणों ने भोजन किया| गाँववालों की दावत हुई, भिखारियों को अन्न-दान दिया गया| यह सब कुछ रामटहल चाचा ने किया, धर्मा ने चाचा से कहा, ‘चाचा आपने मेरे लिए जितना किया, शायद ही मैं इस जनम में आपका ऋण उतार सकूँगा| समूचे गाँव में आपके यश की धूम है| लोग कहते हैं, ‘रामटहल चाचा! इन्सान नहीं, वो तो देवता हैं, देवता! 

मगर चाचा को धर्मा की बातें व्यंग्य लगीं, वे प्रतिकार के भाव से बोले, ‘धर्मा, चैबीसो घंटे परलोक की चिंता करने से काम नहीं चलता, पेट की भी चिंता करनी पड़ती है| ऐसे भी तुम तो जानते ही हो, कि मानव सेवा का भार मैं बचपन से अपने ऊपर लिए घूमता हूँ, और उसी का फ़ल है कि आज मुझे तुम्हारे लिए यह सब करना पड़ा, कारण यह काम मुझे प्रिय है| फ़िर भी आदमी को कभी-कभी अपने माने हुए सिद्धांतों को भी तोड़ना पड़ता है, अर्थात जो वस्तु प्रिय है, उसे भी त्यागना होता है| सच मानो, इसी आत्मोन्नति की चिंता में मेरे हृदय में जो वर्षों पहले दीपक जला, उसकी ज्योति अब तक मंद नहीं पड़ने दिया| 

धर्मा, चाचा के इस संख्यातीत श्रद्धा पर गदगद हो गया, कहा, ‘चाचा मैं जानता हूँ, परोपकार ही आपका जीवन आधार है|

यह सुनकर चाचा ने उसे रोकते हुए कहा, ‘हाँ, तुमने बिल्कुल ठीक कहा, यह संस्कार एक दो दिनों में नहीं बना, बल्कि यह तो पुर्वजों से हमें मिला है, जो सैकड़ों सालों से हमारे खून खून से बहता आ रहा है| मेरे बाप-दादा, सभी मानस सेवा भाव से ही जीये, लेकिन जमाने का रंग अब बदलने लगा है| लोग किये उपकार को भूल जाते हैं, और तो और महँगी इतनी बढ़ गई है, कि आज अपना नहीं पुरता| अकेले जीवन के लिए मेरे पास जो कुछ था, पर्याप्त था, लेकिन परिवार के 12 जने, पुरता नहीं| धर्मा मेरी बातों का तुम अपने मनोनुकूल अर्थ मत निकालना, बल्कि यह कोशिश करना कि दाह-संस्कार में खर्च हुए पूरे पैसे तो नहीं, तब कुछ हल्का कर देने की कोशिश करता, तब मैं भी जी सकूँगा और तुम भी उऋण हो जाते|

धर्मा डरते-डरते कहा, ‘चाचा, आपकी आग्या हो तो कुछ कहूँ!

चाचा रामटहल, उत्सुक हो कहा, ‘हाँ, हाँ कहो?

धर्मा, आँखें नीची कर अत्यंत करुण भाव से बोला, ‘चाचा मैं क्या हूँ, और मेरी हैसियत आपसे छुपी नहीं है, फ़िर भी बार-बार अपनी दरिद्रता को प्रकट करना, दरिद्र होने से ज्यादा दुखदाई होता है| इसलिए, आप भूल जाइये कि मैं निर्धन हूँ, मेरे पास एक कमरे का घर है, जो आपके ऋणोद्धार के लिए काफ़ी होगा| फ़िर बोला, ‘इस जिंदगी से मैं तंग आ गया हूँ, अब मुझे समझ में आ रहा है कि मैं जिस स्वच्छ लहराते हुए निर्मल जल की ओर दौड़ा जा रहा था, वह मरुभूमि है| जब से मैंने होश संभाला, इस तरह के उद्यान में खूब भ्रमण किया, और उसे आदि से अंत तक कंटकमय पाया| यहाँ न तो शांति है, न ही आत्मिक आनंद; यह एक उन्मत, अशांतिमय, स्वार्थपूर्ण जीवन है| यहाँ न नीति है, न धर्म, न सहानुभूति, न सहृदयता| परमात्मा के लिए मेरा घर आप अपने नाम कर, मुझे चिंता के अग्निकुंड में जलने से बचा लीजिए| इतना कहते, धर्मा का गला भर आया|

चाचा, कठोर दृष्टि से धर्मा की ओर देखकर बोले, ‘मैं क्यूँ तुम्हारा घर अपने नाम करवा लूँ, इतने ही संस्कारी हो तो ये लो कागज, तुम खुद मेरे नाम कर दो| धर्मा के लिए यह यंत्रणा असह्य हो गई| वह दोनों हाथ जोड़कर चाचा के चरणों पर गिर पड़ा, कंठ रुद्ध हो गया| एक शब्द भी मुँह से नहीं निकला, अश्रूधारा बह चली, और रोते-रोते उस कागज पर अपने अँगूठे का ठप्पा मारकर, दरिद्रता के कीचड़ में सर तक डूबा धर्मा भागता हुआ जाने कहाँ गुम हो गया|

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ